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सेवासदन
 


सुभद्रा-अच्छा तो लाइये मेरे रुपये दिलवाइये वहाँ आपकी बाजी थी, यहाँ मेरी बाजी है।

पद्म--हॉ,हाँ तुम्हारे रुपये मिलेंगे, जरा सब्र करो। मित्र लोग आग्रह कर रहे है कि धूमधाम से आनन्दोत्सव किया जाय।

सुभद्रा-—हाँ, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा और यह उचित भी है।

पद्म-मैने प्रीतिभोज का प्रस्ताव किया, किन्तु इसे कोई स्वीकार नहीं करता। लोग भोली वाई का मुजरा कराने के लिए अनुरोध कर रहे है।

सुभाद्रा-—अच्छा तो उन्ही की मान लो, कौन हजारो का खर्च है। होली भी आ गई है, बस होली ही के दिन रक्खो। एक पन्य दो काज हो जायगा।

पद्म-—खर्च की बात नही, सिद्धान्त की बात है।

सुभद्रा-भला, अबकी बार सिद्धान्त के विरुद्ध ही सही।

पद्म-विट्ठलदास किसी तरह राजी नही होते। पीछे पड़ जायेंगे।

सुभद्रा-उन्हें बकने दो। संसार के सभी आदमी उनकी तरह थोड़े ही हो जायेंगे।

पण्डित पद्मसिंह आज कई वर्षो के विफल उद्योग के बाद म्युनिसिपैलिटी के मेम्बर बनने में सफल हुए थे। इसी के आनन्दोत्सव की तैयारियाँ हो रही थी। वे प्रीतिभोज करना चाहते थे, किन्तु मित्र लोग मुजरे पर जोर देते थे। यद्यपि वे स्वयं बडे आचारवान् मनुष्य थे, तथापि अपने सिद्धान्तों पर स्थिर रहने को सामर्थय उनमे नही थी। कुछ तो मुरोवत से कुछ अपने सरल स्वभाव और कुछ मित्रो की व्यगोविन के भय से, वह अपने पक्षपर अड़ न सकते थे। बाबू विट्ठलदास उनके परम मित्र थे। वह वेश्या नाच गानके कट्टर शत्रु थे। इस कुप्रथा को मिटाने के लिए उन्होने एक सुधारक संस्था स्थापित की थी। पण्डित पद्मसिंह उनके इने-गिने अनुयायियो में थे। पण्डितजी इसीलिए विट्ठलदास से डरते थे। लेकिन सुभद्रा के बढावा देने से उनका संकोच दूर हो गया।