पृष्ठ:सेवासदन.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
सेवासदन
१११
 

सुमन के सामने एक कठिन समस्या उपस्थित थी, विट्ठलदास को क्या उत्तर दूँ?

आज प्रात:काल उसने कल जवाब देने का बहाना करके विट्ठलदास को टाला था। लेकिन दिन भर के सोच-विचार ने उसके विचारो में कुछ संशोधन कर दिया था।

सुमन को यद्यपि यहाँ भोग-विलास के सभी सामान प्राप्त थे, लेकिन बहुधा उसे ऐसे मनुष्यों की आवभगत करनी पड़ती थी जिनकी सूरत से उसे घृणा होती थी, जिनकी बातों को सुनकर उसका जी मचलाने लगता था। अभी उसके मन मे उत्तम भावों का सर्वथा लोप नही हुआ था। वह उस अधोगति को नहीं पहुँची थी जहाँ दुर्व्यसन हृदय के समस्त भावों को नष्ट कर देता है। इसमे संन्देह नही कि वह विलास की सामग्रियों पर जान देती थी, लेकिन इन सामग्रियों की प्राप्ति के लिये जिस बेहयाई की जरूरत थी वह उसके लिये असहय थी और कभी कभी एकान्त में वह अपनी वर्तमान दशा को पूर्वावस्था से तुलना किया करती थी। वहाँ यह टीमटाम न थी, किन्तु वह अपने समाज में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। वह अपनी सामने अपनी कुलीनता पर गर्व कर सकती थी, अपनी धार्मिकता और भक्ति भाव का रोब जमा सकती थी। किसी के सम्मुख उसका सिर नीचा नही होता था। लेकिन यहाँ उसके सगर्व हृदय को पग-पगपर लज्जा से मुँह छिपाना पड़ता था। उसे ज्ञात होता था कि मैं किसी कुलटा के सामने भी सिर उठाने योग्य नहीं हूँ। जो निरादर और अपमान उसे उस समय सहने पड़ते थे उनको अपेक्षा यहाँ की प्रेमवार्ता और आँखों की सनकियाँ अधिक दुःखजनक प्रतीत होती थीं और उसके भावपूर्ण हृदयपर कुठाराघात कर देती थी। तब उसका व्यथित हृदय पद्मसिंह पर दाँँत पीसपर रह जाता था। यदि उस निर्दय मनुष्यन ने अपनी बदनामी के भय से मेरी अवहेलना न की होती तो मुझे इस पापकुण्ड में कूदने का साहस न होता। अगर वह मुझे चार दिन भी पड़ा रहने देते तो कदाचित् मैं अपने घर लौट जाती अथवा वह (गजाधर) ही मुझे मना ले जाते, फिर उसी प्रकार लड़-झगड़कर जीवनके दिन काटने-