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सेवासदन
 


कटने लगते। इसलिये उसने विट्ठलदास से पद्मसिंह को अपने साथ लाने की शर्त की थी।

लेकिन जब आज जब विट्ठलदस से उसे ज्ञात हुआ कि शर्माजी मुझे उबारने के लिये कितने उत्सुक हो रहे है और कितनी उदारता के साथ मेरी सहायता करने पर तैयार है तो उनके प्रति घृणा के स्थान पर उसके मन मेें श्रद्धा उत्पन्न हुई। वह बड़े सज्जन पुरुष है। मैं खामखाह अपने दुराचार का दोष उनके सिर रखती हूँँ। उन्होने मुझपर दया की है। मैं जाकर उनके पैरो पर गिर पड़ूगी और कहूँगी कि आपने इस अभागिनी का उपकार किया है उसका बदला अपको ईश्वर देगे: यह कंगन भी लौटा दूँ, जिसमें उन्हें यह संतोष हो जाय कि जिस आत्मा की मैंने रक्षा की है, वह सर्वथा उसके अयोग्य नहीं है। बस, वहाँ से आकर इस पाप के माया जाल से निकल भागूँ।

लेकिन सदन को कैसे भुलाऊँगी।

अपने मन की इस चंचलता पर वह झुझला पड़ी। क्या उस पापमय प्रेम के लिये जीवन-सुधारक इस दुर्लभ अवसर को हाथ से मैं जाने दूँ! चार दिन की चाँदनी के लिये सदैव पाप के अन्धकार में पड़ी रहूँ? अपने हाथ से एक सरल हृदय युवक का जीवन नष्ट करूं? जिस सज्जन पुरुष ने मेरे साथ वह सद्व्यवहार किया है उन्ही के साथ यह छल! यह कपट नहीं, मैं इस दूषित प्रेम को हृदय से निकाल दूँगी। सदन को भूल जाऊँगी। उससे कहूँगी, तुम भी मुझे इस मायाजाल से निकलने दो।

आह! मुझे कैसा धोखा हुआ! यह स्थान दूर से कितना मुहावना, मनोरम, कितना सुख मय दिखाई देता था। मैंने इसे फूलो का बाग समझा, लेकिन है क्या? एक भंयकर वन, मांसाहारी पशुओं और विषैले कीड़ो से भरा हुआ।

यह नदी दूर से चाँद की चादर-सी बिछी हुई कैसी भली मालूम होती थी? पर अन्दर क्या मिलता है? बड़े बडे़ विकराल जल जन्तुओं का क्रीडास्थल! सुमन इसी प्रकार विचार सागर में मग्न थी। उसे यह