पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१४७

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अजमेर की तबाही अमीर की सेना ने चढ़ी रकाब अजमेर पर धसारा किया। बलोची पठान और दुर्दान्त तुर्क सवार धड़धड़ाते हुए नगर में घुस गए। सूर्योदय के साथ ही नगर में कत्लेआम, लूटमार और बलात्कार का नग्न ताण्डव होने लगा। दु:ख, शोक और विनाश की चपेट में अजमेर के नागरिक स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, रोगी सब जिधर जिसका सींग समाया, गिरते- पड़ते प्राण लेकर भागने लगे। यह देख मसऊद एक सैनिक टुकड़ी लेकर किले और राजमहल पर जा धमका। महल के रक्षकों ने महल में आग लगा दी। आग-आग-आग चारों तरफ आग ही आग धांय-धांय जलने लगी। राजमहल के बड़े-बड़े धरन कड़ककर टूटने और राजकक्ष जलकर धाराशायी होने लगे। करोड़ों रुपयों की मूल्यवान सामग्री जलकर राख हो गई। सब धन-रत्न स्वाहा हो गया। माल और मालिक की राख एक हो गई। खीझकर मसऊद नगर की ओर फिरा। वहाँ बलोची सवारों ने नरक का दृश्य उपस्थित कर रखा था। मसऊद ने प्रत्येक नागरिक से धन लूटना प्रारम्भ किया। बलोची दैत्य मार-मारकर धन कहाँ छिपा है, पूछने लगे। न बताने पर नर-नारियों पर अकथ्य अत्याचार होने लगे। किसी की आबरू सलामत न रही। अन्त में मसऊद ने सम्पूर्ण नगर को आग की भेंट कर दिया। धांय-धांय जलते अजमेर नगर को लूटकर मसऊद ने सेना को नगर खाली करने की आज्ञा दी और स्वयं शाह मदार की खानकाह में जाकर शाह को सिजदा किया। शाह नीरव, स्तब्ध, चुपचाप बैठा था। आज उसके पास एक भी व्यक्ति न था। वह अकेला था। उसने आँख उठाकर मसऊद की ओर नहीं देखा। मसऊद ने उसके सामने दुजान बैठकर कहा, “हज़रत, अमीर गज़नी शाह की दुआ चाहते हैं और हुक्म भी।” “दुआ देता हूँ, लेकिन हुक्म खुदा का, जाओ।" मसऊद ने अधिक बात करने का साहस नहीं किया। वह वहाँ से चल दिया। राह-बाट में एक भी पुरुष जीवित न था। नगर चारों ओर धांय-धांय जल रहा था। लाशों पर लाशें पटी पड़ी थीं, घरों से चीत्कार और क्रन्दन-ध्वनि आ रही थी। मसऊद अपने बहुमूल्य अरबी घोड़े पर सवार चुपचाप बढ़ा चला जा रहा था। उसकी जड़ाऊ तलवार के रत्न धूप में चमक रहे थे।