पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१५४

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इच्छा वहीं पर पड़ाव डालने की थी, पर अब उसने कूच करना ही ठीक समझा। वह और आगे बढ़ा। उस गहन और सघन वन में घूमता चला गया। परन्तु ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता था, राह-बाट नहीं मिलती थी। उसकी सेना की गति मन्द पड़ गई। व्यवस्था भी गड़बड़ हो गई। क्योंकि सूर्यास्त में अब विलम्ब न था। उसने उसी वन में एक समुचित स्थान देख छावनी डाल दी। परन्तु स्थान इतना सघन और असम था कि इतनी भारी सेना की छावनी वहाँ नहीं पड़ सकती थी। परन्तु लाचारी थी इसमें। सेना की सारी ही व्यवस्था असम्बद्ध हो गई। राह में और यहाँ भी उसे एक भी मनुष्य देखने को नहीं मिला था। सैनिक थके हुए थे। जैसे-तैसे छावनी डालकर वे अपने खान-पान और आराम में लगे। रात्रि हो गई। वह गम्भीर होती गई। धीरे-धीरे छावनी की धूमधाम सन्नाटे में बदलने लगी। थके हुए सैनिक मीठी नींद के झोंके लेने लगे। इसी समय जंगल में चारों ओर प्रकाश फैलता-सा दीखने लगा। प्रकाश फैलता ही गया। प्रहरियों ने कुछ भी ठीक-ठीक नहीं समझा। परन्तु दो प्रहर रात्रि होते-होते वन में चारों ओर आग की लपटें लहर मार रही थीं। अमीर जाग उठा। पल भर ही में वह परिस्थिति को भांप गया। भय से उसका चेहरा पीला पड़ गया। उसने वन में आग लगने के बहुत किस्से सुने थे। वन में चारों ओर आग ही आग लगी थी। आग ने उसके लश्कर को इस भाँति घेर रखा था जैसे साँप कुण्डली मार कर मेंढक को घेर लेता है। अब बड़े-बड़े वृक्ष अर्राकर गिरने लगे। धुएँ के बादल आकाश तक छा गए। अमीर ने देखा कि उसका सारा लश्कर आग के समुद्र में डूब रहा है। शोक से अधीर होकर वह अपना माथा कूटने और दाढ़ी नोचने लगा। सिपाही और सेनापति, जो जहाँ जिस दशा में थे, भाग निकलने की चेष्टा करने लगे। सेना में कोई व्यवस्था ही न रही। हाथी चिंघाड़ते और घोड़े बेकाबू होकर उछलते हुए इधर-उधर दौड़ने और सेना को कुचलने लगे। चलती हुई सेना के ऊपर भारी- भारी जलते हुए वृक्ष गिरकर सेना को चकनाचूर करने और झुलसाने लगे। पृथ्वी पर जैसे आग का समुद्र बह रहा हो ऐसा प्रतीत हो रहा था। उसपर होकर चलना घोड़ों और पैदलों, दोनों ही के लिए असम्भव था। परन्तु रुकना या अटकना बिना मौत मरना था। अमीर पागल की भाँति उन्मत्त और हताश हो रहा था। कौन कहाँ है, यह किसी को पता न था। प्रत्येक व्यक्ति किसी तरह इस अग्नि के समुद्र से जान लेकर पार होने की चिन्ता में था। पहाड़ी हवा गज़ब ढा रही थी। न मार्ग का पता चलता था, न दिशा का। दम घोंटनेवाला धुआँ हवा में भरा था। अनगिनत सिपाही-घोड़े उस धुएँ में दम घुटकर और आग में झुलस कर, गिरते हुए पेड़ों से कुचलकर मरे-अधमरे होकर वहीं रह गए। भागने वालों ने उन्हें कुचल कर चटनी कर दिया। उषा का उदय हुआ। सूर्य निकला, परन्तु इस आग के समुद्र का तो कहीं पार ही न था। अमीर घायल और कमज़ोर पहले ही से था। अब जीवन से निराश होकर मूर्छित हो घोड़े से गिर पड़ा। उसके जां-निसार सरदारों और गुलामों ने उसे हाथों-हाथ उठाया। वे उसे सब आपदाओं से बचाते हुए प्राणों के मोल पर ले दौड़े। दो प्रहर दिन चढ़ते-चढ़ते लश्कर आग के इस समुद्र से बाहर हुआ। परन्तु इस आग से अमीर का बहुत लश्कर नष्ट हो गया। सेना की सारी व्यवस्था बिगड़ गई। डेरे-तंबू सब जलकर खाक हो गए। हाथी-घोड़े-प्यादे सब अधमरे