पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१८७

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"किसलिए?" "धर्मद्वेषी शत्रु के विनाश के लिए।" “कहाँ?" “किसी पुण्य शरीर में।” "किस प्रकार?" “तेरे ही शरीर में देव का वास हुआ है पुत्र। तू अब शिवरूप है, जा, देवद्वेषी का संहार कर।" "किन्तु लिंग-शरीर?" "वह अचल है, यहीं रहेगा।" “यदि मलेच्छ उसकी मर्यादा भंग करे तो?" “उसका रक्षक मैं हूँ, मैं अपना कर्तव्य-पालन करूँगा।" "लेकिन आप यहाँ न रह सकेंगे!" "भलीभाँति रह सकूँगा,” गंग सर्वज्ञ ने हँसकर कहा, “महासेनापति क्या देव- सेवक पर भी अनुशासन चलाएँगे?" "भीमदेव भी हँस दिए, उन्होंने कहा, “क्यों नहीं, अब तो यह शरीर देवाधिष्ठित हो गया। अब यह आपका चिर-किंकर भीमदेव नहीं, देवदेव महादेव बोल रहे हैं।" "तो देव जानते हैं कि ऐसी स्थिति में देवता के इस पार्थिव शरीर की रक्षा के सम्बन्ध में मेरा क्या कर्तव्य है। तुम सेनापति, इतना भी नहीं जानते कि नगण्य पुरुष का भी निष्प्राण शरीर, जीवित शरीर की अपेक्षा अधिक सम्मानीय होता है, फिर यह तो देवता का लिंग-शरीर है।" 'किन्तु प्रभु, उसने अनेक देवस्थानों को भंग किया है, अनेक देवमूर्तियों को अपमानित किया है। "तो पुत्र, यह उसका अपना पुण्य-पाप, निष्ठा और आचार है। इसका लेखा-जोखा हम कहाँ तक करेंगे?" "तब हमें क्या करना होगा?" "केवल कर्तव्य-पालन।” “किसके प्रति?" "तुम्हारा देवस्थान के प्रति, तुम प्राण रहते इसकी रक्षा करो! और मेरा देवलिंग के प्रति, प्राण रहते मैं इसकी प्रतिष्ठा र गा।" "इसके बाद?" "इसके बाद जो दैवेच्छा!" “किन्तु...।” "नहीं पुत्र, देवेच्छा में किन्तु-परन्तु नहीं।" "तो लिंग-शरीर यहीं रहेगा।?" “निश्चय।" " 64 c "और आप? “जहाँ देवमूर्ति, वहाँ देव-सेवक।"