पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२१५

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दोस्त पाएँगे।" "मुझे यकीन है, लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम मुझसे कुछ माँगकर मुझे ममनून करो।" "आलीजाह ने इस साधारण राजसेवक को दोस्त कहकर सब कुछ दे दिया। अब और कुछ माँगने को रहा नहीं।" "क्या इस जंग की बाबत मेरे दोस्त गज़नी के सुलतान से कुछ कहना चाहेंगे?" “आलीजाह, मैं महा धर्म-सेनापति महाराज भीमदेव का सन्देशवाहक नहीं हूँ।" “ठीक है मैं समझता हूँ। तो दोस्त, गज़नी के अमीर की जान तुम्हारी अमानत है। बस जाओ, खुदा हाफिज़!" अमीर उठकर महता के गले मिला। खेमे के द्वार तक साथ आया। खेमे के बाहर अमीर के साथ मनसबदारों ने उसे विदाई की सलामी दी। और राहदारी का सवार देकर उसे विदा किया।