पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२५१

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मन्दिरों और चबूतरों से उखाड़-उखाड़कर द्वार पर ढेर किए जा रहे थे। खाई में मरे हुए तुर्कों के तीरों से कोट पर के राजपूत विद्ध हो-होकर खाई में गिर रहे थे। इधर भारी-भारी पत्थरों से चटनी होकर महमूद के योद्धा मर रहे थे। परन्तु आज जैसे प्राणों का किसी को मोह नहीं रहा था। खाई और खाई के बाहर मुर्दो का टीला लग रहा था, फिर भी शत्रु-दल टिड्डी-दल की भाँति बढ़ता ही आ रहा था। अब द्वार पर हाथियों की टक्कर लगने लगी। आठ मस्त हाथी सूंड से भारी-भारी शहतीर ले द्वार को ठेलने लगे। उनके कंधे पर बैठे महावत निर्दयता से उनके कान की जड़ में अंकुश बींध रहे थे। और हाथी चिंघाड़ते हुए बड़े-बड़े शहतीरों से सिंहद्वार के लौह-जटित फाटक पर आघात कर रहे थे। उधर पुल भी खाई पर फैल गया। और इधर-उधर तैरते हुए योद्धा उसपर चढ़कर दौड़ने लगे। अब ऊपर से उनपर खौलता हुआ तेल और जलती हुई लकड़ियाँ फेंकी जाने लगीं। बड़े-बड़े लकड़ी के कुन्दों में तेल और गन्धक से तर कपड़ा लपेटकर आग लगाकर उन्हें हाथियों पर फेंका गया। गन्धक की गन्ध से घबराकर हाथी चिंघाड़ते हुए, पीछे हटकर खाई में जा गिरे। इसी समय शत्रुओं ने सिंहद्वार में आग लगा दी। कोट में भय की लहर व्याप गई। इसी क्षण कोट के अन्तरायण से एक वज़निनाद सुन पड़ा, “अल्लाहो-अकबर !” राजपूत योद्धा आश्चर्यचकित हो भीतर ओर देखने लगे। जो कुछ देखा, उसे देख वे भय से चिल्ला उठे। न जाने कहाँ से कैसे धरती फोड़कर अन्तरायण में शत्रु घुस आए थे। कोई कुछ न समझ सका।