पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३२०

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“जो कोई आग बुझाने का प्रयत्न करे, उसे भगवान सोमनाथ की आन है। मेरे पति ने अपना मार्ग चुना और मैंने अपना। अप्रतिष्ठा की असह्य ज्वाला में जलने की अपेक्षा इस आग में जीते-जी जल मरना हमारा आज का सबसे बड़ा सुख है।' एकाएक शत-सहस्र कण्ठ-स्वर खुल गए। वज्र-गर्जना की भाँति एक स्वर से सब बोल उठे, “जय अम्बे, जय सती माँ, जय जय!" आग की लपटों ने घर को चारों ओर से घेर लिया। लोग दूर हट कर खड़े हो यह अद्भुत अघटित दृश्य देखने लगे। केवल वृद्ध ब्राह्मण वहीं अडिग खड़े रहे। बहुत भारी कड़ाके के साथ छत गिरी और लोगों ने उसी के साथ एक स्वर सुना, 'जय-देव!' सारी हवेली धांय-धांय जल रही थी, उसी के साथ घर पर की गृहलक्ष्मी, वधुएँ और बालाएँ चुपचाप जल रही थीं। साथ में कुलगुरु भी। कहीं हाहाकार न था, कहीं रुदन न एक धीमी आवाज़ बीच-बीच में कुछ देर सुनाई देती रही, “जय देव, जय-जय देव!” और फिर वह भी बन्द। था।