पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३४०

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बरबाद न करो, सवा लाख सोने की मुहरें हुजूर सुलतान की खिदमत में पेश करो तो गुनहगारों को माफी मिल सकती है।" नगरसेठ ने बहुत अनुनय-विनय किया। पर सुलतान ने एक न सुनी। विवश महाजनों ने मुहरों की थैलियाँ सुलतान के सामने रख दीं। मुहरों को गिनकर अब्दुल अब्बास ने माफी का परवाना लिखकर उस पर सुलतान की मुहर लगाकर नगरसेठ के हाथ में दे दिया। महाजनों ने हाथ उठा-उठा कर सुलतान को बहुत-बहुत धन्यवाद-आशीर्वाद दिया और वे अब एक क्षण का भी समय नष्ट न कर दौड़ते हुए मानिक चौक की ओर चले, जहाँ अभागे कैदियों के भाग्य का फैसला होने वाला था।