पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३६४

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" अन्ततः उसने एक दिन सुना, गज़नी का दैत्य रण में धंसा चला आ रहा है। उसने अपनी सांड़नी को थपथपया। हर्ष से उसके रक्त की एक-एक बूंद नाच उठी। उसने कहा, "अब, बस अब। भगवान् सोमनाथ रुद्रावतार तृतीय नेत्र खोलेंगे।" और एक दिन उसने देखा, काली-काली चीउटियाँ-सी रेंगती हुई रन में बढ़ रही हैं। जैसे साँप कुण्डली मारकर बैठ जाता है, उसी प्रकार अमीर की सेना ने टेकरी को चारों ओर से घेर लिया। दैत्य के समान तुर्क पठान सैनिक तालाब पर पिल पड़े। सारा पानी उन्होंने ऊँटों पर भर लिया। अन्तत: उनकी दृष्टि सज्जन पर पड़ी। मैला वस्त्र, बढ़ी हुई दाढ़ी, दुर्बल शरीर, गढ़े में धंसी आँखें, उलझी हुई मूंछे। वे उसे पकड़कर सेनानायक के सामने ले गए। सेना नायक ने पूछा- “तू कौन है?" “मैं भुमिया हूँ।' “कहाँ का?" "भम्भरिया का।" "तू रण का मार्ग जानता है?" "जानता हूँ।' "हमें राह दिखा सकता है।" "नहीं।" "क्यों?" "रणथम्भी माता की आन है। माता को लाँघकर कोई रण में नहीं जाता।" “तू गया है?" “गया हूँ।” "तो मार्ग दिखा, तुझे सोना मिलेगा।" "नहीं दिखाऊँगा।" सज्जन ने मूर्ख भुमिया का अभिनय किया। नायक ने उसे पकड़कर पहरे में रख लिया और अमीर की सेना में पेश किया। अमीर ने देखकर पूछा, “क्यों राह दिखाने से इन्कार करता है?" "माता की आन है। माता को लाँघकर जाने से कोई जीता नहीं बचता।" "लेकिन तुझे सोना मिलेगा।" “कितना?" "बहुत।" अमीर के संकेत से एक पाश्र्वद ने मुहरों से भरी एक भारी थैली उस पर फेंक दी। मुहरों को पाकर सज्जन ने खुश होने का अभिनय किया। जैसे वह लालच में आकर अमीर को राह दिखाने को राजी हो गया हो। अमीर ने पूछा, “कितने दिन की राह है?" "आठ-दस दिन की।" "दगा की, तो जिन्दा नहीं रहेगा।" “जिन्दा कैसे रहूँगा।” सज्जन हँसा। उसे कड़े पहरे में रक्खा गया, पर उसकी खातिर खूब की गई।