पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३८४

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. . डाकिनी में 'भीम शंकर', काशी में 'विश्वनाथ', गोदावरी तट पर 'त्र्यम्बकेश्वर', चिता भूमि में 'वैद्यनाथ', दारुकवन में श्री नागेश्वर', सेतुबन्ध में 'श्रीरामेश्वर' और 'घुश्मेश्वर' । शिवपुराण, रामायण, महाभारत और दूसरे प्राचीन धर्मग्रन्थों में इन ज्योतिर्लिंगों का माहात्म्य खूब बढ़ा-चढ़ाकर लिखा गया है। इन सबमें सर्वप्रथम महत्त्व सोमनाथ ही के मन्दिर को दिया गया है। इस मन्दिर का वर्णन संक्षेप में यह है कि दक्ष प्रजापति ने अपनी सत्ताईस कन्याओं का विवाह चन्द्र के साथ किया, परन्तु चन्द्र ने एकमात्र रोहिणी के प्रति आकर्षण दिखाया। तब दक्ष ने उसे क्षय होने का श्राप दिया, जिसपर चन्द्र ने प्रभासतीर्थ में मृत्युंजय रुद्र की आराधना की, और छह मास तक निरन्तर घोर तप किया, जिससे चन्द्र को मुक्ति और अमरत्व प्राप्त हुआ और रुद्र ने उससे कहा कि कृष्ण पक्ष में तुम्हारी एक कला क्षीण होगी, और शुक्ल पक्ष में उसी क्रम से बढ़ेगी, और प्रत्येक पूर्णिमा को पूर्ण चन्द्र हो जाया करेगा। इसके पीछे चन्द्र ने ज्योतिर्लिंग के रूप में उसी क्षेत्र में रुद्र की स्थापना की। वही यह सोमनाथ देवाधिदेव हैं जिनकी बढ़ी-चढ़ी महिमा महाभारत, श्रीमद्भागवत और स्कन्दपुराण में गाई गई है। भारत में प्राचीनतम शिव मूर्ति जो हमें मिलती है, वह भारत के गुडिमल्ल के मन्दिर की है। यह मूर्ति आज से बाईस सौ वर्ष पूर्व, ईसा से दो शताब्दी पूर्व की है। इस मूर्ति का अब तक पूजन होता है। यह एक स्तम्भाकार लिंग-मूर्ति है। लिंगदण्ड के एक ओर द्विभुज पशुपति शिव खड़े हैं, उनके एक हाथ में मेष पशु है और दूसरे में परशु। दक्षिण और उत्तर भारत में दो हज़ार वर्ष पूर्व की और भी चतुर्भुज लिंग-मूर्तियाँ मिली हैं। कुषाणयुगीन पत्थर की दो अँगुलि-मुद्रा मिली हैं, जो कलकत्ते के अजायबघर में रखी हुई हैं, जो बड़ी भव्य और प्रभावशाली है। बिल्कुल गुंडिमल्लम की शिव-मूर्ति के समान ही एक शिव-मूर्ति सम्भवतः ईसा से दूसरी शताब्दी की कुषाण-युग की मथुरा में मिली है। ऐसा मालूम होता है कि गुप्त युग में खड़ी हुई शिव की मूर्ति उध्वलिंग के रूप में ही थी, इस प्रकार की मूर्ति का नाम 'लकुलेश' था। ‘लकुल' शब्द लिंगवाचक है। 7वीं शताब्दी में परिव्राजक द्वेनसांग ने काशी में जो शिव-मूर्ति देखी थी, उससे वह बहुत प्रभावित हुआ था। उसने लिखा है कि यह मूर्ति विशाल और महानता से परिपूर्ण है, और मूर्ति को देखते ही दर्शक सम्भ्रान्त और संत्रस्त हो जाता है। बम्बई के निकट एलिफैण्टा द्वीप के गिरि मन्दिर में जो विराट्काय महाशिव मूर्ति है, वह सारे संसार की भास्कर्यक कला में अप्रतिम है। उस विशाल मूर्ति के तीन मुख दिखाए हैं, जो शिव के त्रिपुर के द्योतक हैं। द्रविड़ देश में जो शिव की नटराज की मूर्ति प्राप्त हुर्ह है, श्रेष्ठता की दृष्टि से उसका स्थान सबसे प्रथम है। ऐसी ही कुछ अद्वितीय शिवमूर्तियाँ जावा द्वीप में भी प्राप्त हुई हैं। इसके अतिरिक्त इण्डोचीन, मध्यबर्मा, कम्बोडिया, कोचीन, दक्षिण बर्मा और मलाया के द्वीपों में, सिंगापुर, सुमात्रा और बोर्नियो तथा फिलीपाइन द्वीपों में भी शिव की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इतना ही नहीं, उनके संस्कृत शिलालेख और विस्मयकारी मन्दिरों के प्राप्त भग्नावशेष भी महत्त्वपूर्ण हैं। ऐसे ही शिलालेखों में एक महत्त्वपूर्ण शिलालेख स्याम देश में स्दाक काकथाम के स्तम्भ पर उत्कीर्ण हुआ मिला है। स्दाक काकथाम का अर्थ है, महानल-ह्रद, अर्थात् सरकण्डों की बड़ी झील। जिस विशाल मन्दिर के खण्डहर का यह लेख है, उसके पूर्व की ओर एक बड़ी झील है। मन्दिर के झील तक जाने के लिए 330 गज़ लम्बी एक पुलिया है, उसके बाद घना जंगल है। खंडहर को देखने से पता लगता है कि वह लगभग 150 गज़ लम्बी और चौड़ी