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सौ अजान और एक सुजान


का अध्ययन करने लगे। कुछ समय के लिये उन्होंने अध्यापन-कार्य भी किया, किंतु उसमें विशेष रुचि न होने के कारण शीघ्र ही नौकरी छोड़ दी। स्वतंत्रता की धुन सवार होने के कारण यह बहुत दिनों तक घर बैठे रहे, और कहीं भी नौकरी न की।

इसी समय उनका विवाह हो गया। गृहस्थी की चिंता से त्रस्त होकर उन्होंने व्यापार करने की ठानी, किंतु उसमें भी सफलता न मिली। पुनः उन्होंने अपने अमूल्य समय को संकल्प-रूप में संस्कृत और हिंदी-साहित्य में लगाया, और उस समय के साप्ताहिक तथा मासिक पत्रों में लेख लिखना प्रारंभ किया। प्रयाग के कुछ उत्साही साहित्यकों के प्रयत्न से 'हिंदी-प्रदीप' नामक पत्र निकलना शुरू हुआ, और हमारे भट्टजी ही उसके संपादक हुए। सरकार ने इसी अवसर पर प्रेस-ऐक्ट निकाला, जिसके प्रभाव से भट्टजी के सह-योगियों ने 'हिदी-प्रदीप' से अपना संबंध-विच्छेद कर लिया। भट्टजी ने अनवरत परिश्रम करके पत्र को चालू रक्खा, और मातृभाषा की सेवा की भावना ने उनको आशातीत सफलता दी। कुछ समय उपरांत भट्टजी ने प्रयाग की कायस्थ-पाठशाला में संस्कृत के अध्यापक का कार्य प्रारंभ किया, किंतु यह नौकरी भी स्थायी न रही। इसके बाद ही 'हिदी-प्रदीप' भी बंद हो गया। फिर काशी-नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित 'हिंदी-शब्द-सागर'-नामक वृहत् कोष के संपादन में भट्टजी ने यथेष्ट सहयोग दिया, और उसे पूर्ण उपयोगी बनाने में पर्याप्त परिश्रम किया।

अचानक ही श्रावण-कृष्णा १३, संवत् १९७१ को श्रापका शरीरांत हो गया! हिंदी-माता के इस सपूत का निधन किस साहित्य-सेवी को शोक-सागर में नहीं डुबोता? पं. बालकृष्ण भट्ट हिंदी के एक सच्चे सेवक और विद्वान् थे। उनका स्वभाव बड़ा ही सरल और उदार था। वह बड़े ही हंसमुख थे। उनकी रहन-सहन सादी और