पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

भूमिका


आडंबर-रहित थी। सनातनधर्म के पक्के अनुयायी होते हुए भी वह कभी अंध-परंपरा के पक्षपाती नहीं रहे। उनकी धर्म-निष्ठा सराहनीय थी।

भट्टजी के लिखे हुए कलिराज का सभा, बाल-विवाह-नाटक, नूतन ब्रह्मचारी, रेल का विकट खेल, जैसा काम वैसा परिणाम, भाग्य की परख, गीता-सप्तशती की आलोचना तथा षट्दर्शन-संग्रह का भाषानुवाद आदि-आदि बड़े ही महत्त्व-पूर्ण समझे जाते हैं। भट्टजी की भाषा उनकी अपनी भाषा है। उसमें मौलिकता है, रस है, और एक अनूठापन है, जो दूसरे लेखकों की रचनाओं में नहीं पाया जाता। उनकी कृतियों में अनुभव, अध्ययन और सरलता की छाप है। गद्य-लेखकों में भट्टजी ने अपनी असामान्य प्रतिभा द्वारा उच्च स्थान अधिकृत कर लिया है। भट्टजी के स्वसंपादित 'हिंदी-प्रदीप' में यदा-कदा प्रकाशित होनेवाले सुंदर लेखों का एक संग्रह 'साहित्य-सुमन' के नाम से, गंगा-पुस्तकमाला में, प्रकाशित हो चुका है। उसमें एक-से-एक बढ़कर २५ चुने हुए ललित लेख हैं। कहना न होगा कि यह संग्रह इतनी लोक-प्रियता प्राप्त कर चुका है, जितनी आधुनिक समय में प्रकाशित विरले ही किसी संग्रह को मिली होगी।

'सौ अजान और एक सुजान' भी भट्टजी की अनूठी कृति है। इसीलिये इसके कई संस्करण हो चुके है। भट्टजी की यह रचना अपनी मौलिकता और उत्कृष्टता के कारण सर्वप्रिय बन चुकी है। एक प्रबंध-कल्पना के रूप में यह कृति अपने विषय की बेजोड़ चीज़ है। भाषा में हास्यरस की सुंदर पुट है। भाव स्पष्ट और गंभीर हैं। भट्टजी की यह रचना व्यंग्यात्मक है, और इसमें मानव-जीवन की सामाजिक परिस्थितियों का सुंदर चित्रण पाया जाता है। शृंखलित कथानक का आश्रय लेकर लेखक ने इस पुस्तक