पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/९०

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पंद्रहवाॅ प्रस्ताव

भारत की इस भारत दशा में चारों ओर जब अज्ञान-तिमिर की घटा उमड़ आई, तो साधु, सदाचारवान्, सत्पुरुष कही दर्शन को भी न रहे; झूठे, पाखंडी, दुराचारी, मक्कार पुज- वाने लगे। दिन में सूर्य का, रात में चंद्रमा का दर्शन किसी- किसी दिन घड़ी-दो घड़ी के लिये वैसे ही धुणाक्षर-न्याय- सा हो गया, जैसा अन्यायी राजा के राज्य में न्याय और इंसाफ कभी-कभी विना जाने अकस्मात् हो जाता है। पृथ्वी पर एकाकार जल छा जाने से भू-भाग का सम-विसम-भाव, तत्त्वदशी शांतशील योगियों की चित्तवृत्ति के समान, जाता ही रहा । हिंदोस्तान में बरसात का मौसिम बड़े आमोद-प्रमोद का समझा जाता है, और उस समय जब इस उन्नीसवीं सदी की आशाइशे और आराम रेल, तार इत्यादि कुछ न थे, सभी लोग बरसात के सबब अपना-अपना काम-काज छोड़ देने को लाचार हो जाते थे। यही कारण है कि जितने तिहवार और उत्सव सावन-भादों के दो महीनों में होते हैं, उतने साल-भर के बाकी दस महीनों में भी नहीं होते। उद्यमी और काम- काजी लोग भी जिनको विना कुछ उद्यम और परिश्रम किए केवल हाथ पर हाथ रख बैठे रहने की चिढ़ है, और एक क्षण भी ऐसा व्यर्थ नहीं गॅवाया चाहते, जिसमें वे अपने पुरुषार्थ का कुछ नमूना न दिखलाते हों। वे वर्षा ऋतु में शिथिल और ढीले पड़ जाते हैं। तो आवारगी और व्यसन के हाथ में अपने को सौपे हुए इन दोनों बाबुओं का क्या कहना!