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प्रथम अंक
 


गुप्तसेना की मर्य्यादा की रक्षा के लिये पर्णदत्त-सदृश महावीर अभी प्रस्तुत हैं।

पर्णदत्त--राष्ट्र नीति, दार्शनिकता और कल्पना का लोक नहीं है। इस कठोर प्रत्यक्षवाद की समस्या बड़ी कठिन होती है। गुप्त-साम्राज्य की उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ उसका दायित्व भी बढ़ गया है; पर उस बोझ को उठाने के लिये गुप्तकुल के शासक प्रस्तुत नहीं, क्योंकि साम्राज्य-लक्ष्मी को वे अब अनायास और अवश्य अपनी शरण आनेवाली वस्तु समझने लगे हैं।

स्कंदगुप्त--आर्य! इतना व्यङ्ग न कीजिये, इसके कुछ प्रमाण भी है?

पर्णदत्त--प्रमाण! प्रमाण अभी खोजना है? आँधी आने के पहले आकाश जिस तरह स्तम्भित हो रहता है, बिजली गिरने से पूर्व जिस प्रकार नील कादम्बिनी का मनोहर आचरण महाशून्य पर चढ़ जाता है, क्या वैसी ही दशा गुप्त-साम्राज्य की नहीं है?

स्कंदगुप्त--क्या पुष्यमित्रों के युद्ध को देखकर वृद्ध सेनापति चकित हो रहे है? (हँसता है)

पर्णदत्त--युवराज? व्यंग न कीजिये। केवल पुष्यमित्रों के युद्ध से ही इतिश्री न समझिये, म्लेच्छों के भयानक आक्रमण के लिये भी प्रस्तुत रहना चाहिये। चरों ने आज ही कहा है कि कपिशा को श्वेत हूणों ने पदाक्रान्त कर लिया! तिसपर भी युवराज पूछते हैं कि 'अधिकारों का उपयोग किस लिये'! यही 'किस लिये' प्रत्यक्ष प्रमाण है कि गुप्तकुल के शासक इस साम्राज्य को 'गले-पड़ी' वस्तु समझने लगे हैं!