पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/१०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
स्कंदगुप्त
 

प्रपंच॰-- ( उठकर उसका हाथ पकड़कर खड्ग उठाता है) परन्तु मुझे ठहरने का अवकाश नहीं। उग्रतारा की इच्छा पूर्ण हो!

देवसेना--प्रियतम! मेरे देवता युवराज!! तुम्हारी जय हो!

(सिर झुकाती है)


[पीछे से मातृगुप्त आकर प्रपंच का हाथ पकड़कर नेपथ्य में ले जाता है, देवसेना चकित होकर स्कंद का आलिङ्गन करती है!]

९६