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स्कंदगुप्त
प्रपंच॰-- ( उठकर उसका हाथ पकड़कर खड्ग उठाता है) परन्तु मुझे ठहरने का अवकाश नहीं। उग्रतारा की इच्छा पूर्ण हो!
देवसेना--प्रियतम! मेरे देवता युवराज!! तुम्हारी जय हो!
(सिर झुकाती है)
[पीछे से मातृगुप्त आकर प्रपंच का हाथ पकड़कर नेपथ्य में ले जाता है,
देवसेना चकित होकर स्कंद का आलिङ्गन करती है!]
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