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[मगध में अनंतदेवी, पुरगुप्त, विजया और भटार्क]

पुरगुप्त-- विजय-पर-विजय! देखता हूँ कि एक बार वंक्षुतट पर गुप्तसाम्राज्य की पताका फिर फहरायगी। गरुड़ध्वज वंक्षु के रेतीले मैदान में अपनी स्वर्ण-प्रभा का विस्तार करेगा।

अनन्त॰-- परन्तु तुमको क्या? निर्वीर्य, निरीह बालक! तुम्हें भी इसकी प्रसन्नता है? लज्जा के गर्त में डूब ही जाते। और भी छाती फुलाकर इसका आनन्द मनाते हो!

विजया-- अहा! यदि आज राजाधिराज' कहकर युवराज पुरगुप्त का अभिनन्दन कर सकती!

भटार्क-- यदि मैं जीता रहा तो वह भी कर दिखाऊँगा!

(दौवारिक का प्रवेश)

दौवारिक-- जय हो! एक चर आया है। भटार्क-- ले आओ।

(दौवारिक जाकर चर को लिवा लाता है)

चर-- युवराज की जय हो!
भटार्क-- तुम कहाँ से आये हो?
चर-- नगरहार के हूण-स्कंधावार से।
भटार्क-- क्या संदेश है?
चर-- सेनापति खिङ्गिल ने पूछा है कि मगध की गुप्तपरिषद् क्या कर रही है? उसने प्रचुर अर्थ लेकर भी मुझे ठीक समय पर धोखा दिया है। परन्तु स्मरण रहे कि अबको हमारा अभियान सीधे कुसुमपुर पर होगा; स्कंदगुप्त का साम्राज्य-ध्वंस पीछे होगा। पहले कुसुमपुरी का मणि-रत्न-भांडार लूटा जायगा। प्रतिष्ठान

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