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तृतीय अंक
 

१— सखी-- न कहो, तब फिर क्या-हरी-हरी कोपलों की टट्टी में फूल खिल रहा है-- और क्या!

देवसेना-- तेरा मुँह काला, और क्या? निर्दय होकर आघात मत कर, मर्म्म बड़ा कोमल है। कोई दूसरी हँसी तुझे नहीं आती?

(मुंह फेर लेती है)

२-सखी-- लक्ष्यभेद ठीक हुआ-सा देखती हूँ।

देवसेना-- क्यों घाव पर नमक छिड़कती है? मैंने कभी उनसे प्रेम की चर्चा करके उनका अपमान नहीं होने दिया है। नीरव जीवन और एकांत व्याकुलता, कचोटने का सुख मिलता है। जब हृदय में रुदन का स्वर उठता है, तभी संगीत की वीणा मिला लेती हैं। उसीमे सब छिप जाता है।

(आँखों से आँसू बहता है)

१-सखी-है-हैं, क्या तुम रोती हो? मेरा अपराध क्षमा करो!

देवसेना--(सिसकती हुई) नहीं प्यारी सखी! आज ही मैं प्रेम के नाम पर जी खोलकर रोती हूँ; बस, फिर नहीं। यह एक क्षण का रुदन अनन्त स्वर्ग का सृजन करेगा।

२-सखी--तुम्हें इतना दुःख है, मैं यह कल्पना भी न कर सकी थी।

देवसेना--(सम्हलकर) यही तू भूलती है। मुझे तो इसी में सुख मिलता है; मेरा हृदय मुझसे अनुरोध करता है, मचलता है, रूठता है, मै उसे मनाती हूँ। ऑखें प्रणय-कलह उत्पन्न कराती हैं, चित्त उत्तेजित करता है, बुद्धि झिड़कती है, कान कुछ

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