[ दुर्ग के सम्मुख कुभा का रणक्षेत्र; चक्रपालित और स्कंदगुप्त ]
चक्र०-- सम्राट्! प्रतारणा को पराकाष्ठा! दो दिन से जान-बूझकर शत्रु को उस ऊँची पहाड़ी पर जमने का अवकाश दिया जा रहा है। आक्रमण करने से मैं रोका जा रहा हूँ। समस्त मगध की सेना उसके संकेत पर चल रही है।
स्कंद०-- चक्र! कुभा में जल बहुत कम है, आज ही उतरना होगा। तुम्हें दुर्ग में रहना चाहिये। मैं भटार्क पर विश्वास तो करता ही नहीं, परन्तु उसपर प्रकट रूप से अविश्वास का भी समय नहीं रहा।
चक्र०-- नहीं सम्राट! उसे बंदी कीजिथे । वह देखिये-- आ रहा है।
भटार्क-- (प्रवेश करके) राजाधिराज की जय हो!
स्कंद०-- क्यो सेनापति! यह क्या हो रहा है?
भटार्क-- आक्रमण की प्रतीक्षा सम्राट्!
स्कंद॰-- या समय की?
भटार्क-- सम्राट् का मुझपर विश्वास नहीं है, यह .........
चक्र०-- विश्वास तो कहीं से क्रय नहीं किया जाता!
भटार्क-- तुम अभी बालक हो।
चक्र०-- दुराचारी कृतघ्न! अभी मैं तेरा कलेजा फाड़ खाता; तेरा......!
१११