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स्कंदगुप्त
 

भटार्क-- सावधान! अब मैं सहन नहीं कर सकता!

(तलवार पर हाथ रखता है)

स्कंद०-- भटार्क! वह बालक है। कूटमंत्रणा, वाक् चातुरी नहीं जानता। चुप रहो चक्र!

(चक्रपालित और भटार्क सिर नीचा कर लेते हैं)

स्कंद०–– भटार्क! प्रवञ्चना का समय नहीं है। स्मरण रखना- कृतघ्न और नीचों की श्रेणी में तुम्हारा नाम पहले रहेगा!

(भटार्क चुप रह जाता है)

स्कंद०-- युद्ध के लिये प्रस्तुत हो?

भटार्क-- मेरा खड्ग साम्राज्य की सेवा करेगा।

स्कंद०-- अच्छा तो अपनी सेना लेकर तुम गिरिसंकट पर पीछे से आक्रमण करो और सामने से मैं आता हूँ। चक्र! तुम दुर्ग की रक्षा करो।

भटार्क-- जैसी आज्ञा। नगरहार के स्कंधावार को भी सहायता के लिये कहला दिया जाय तो अच्छा हो।

स्कंद०–चर गया है। तुम शीघ्र जाओ । देखो-सामने शत्रु दीख पड़ते हैं।

(भटार्क का प्रस्थान)

चक्र०-- तो मैं बैठा हूँ?

स्कंद-- भविष्य अच्छा नहीं है चक्र! नगरहार से समय पर सहायता पहुँचती नहीं दिखाई देती। परंतु, यदि आवश्यकता हो तो शीघ्र नगरहार की ओर प्रत्यावर्तन करना। मैं वही तुमसे मिलूँगा।

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