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चतुर्थ अंक
 


मुझे ऐसे कीट-पतङ्गों की आवश्यकता नहीं। परन्तु स्मरण रखना, मैं हूँ अनन्तदेवी! तेरी कूटनीति के कंटकित कानन की दावाग्नि--तेरे गर्व-शैलश्रृंग का वज्र! मैं वह आग लगाऊँगी, जो प्रलय के समुद्र से भी न बुझे!

(जाती है)

विजया--मैं कहीं की न रही! इधर भयानक पिशाचों की लीला-भूमि, उधर गम्भीर समुद्र! दुर्बल रमणी-हृदय! थोड़ी आँच में गरम, और शीतल हाथ फेरते ही ठंढा! क्रोध से अपने आत्मीय जनों पर विष उगल देना! जिनको क्षमा की आवश्यकता है--जिन्हें स्नेह के पुरस्कार की वांछा है, उनकी भूल पर कठोर तिरस्कार और जो पराये हैं, उनके साथ दौड़ती हुई सहानुभूति! यह मन का विष, यह बदलनेवाले हृदय की क्षुद्रता है। ओह! जब हम अनजान लोगों की भूल और दुःखों पर क्षमा या सहानुभूति प्रकट करते हैं, तो भूल जाते हैं कि यहाँ मेरा स्वार्थ नहीं है। क्षमा और उदारता वही सच्ची है, जहाँ स्वार्थ की भी बलि हो। अपना अतुल धन और हृदय दूसरों के हाथ में देकर चलूँ--कहाँ? किधर--(उन्मत्त भाव से प्रस्थान करना चाहती है)

(पदच्युत नायक का प्रवेश)

नायक--शांत हो।

विजया--कौन?

नायक--एक सैनिक।

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