पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/१२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
स्कंदगुप्त
 

विजया--दूर हो, मुझे सैनिकों से घृणा है।

नायक--क्यों सुन्दरी?

विजया--क्रूर! केवल अपने झूठे मान के लिये, बनावटी बड़प्पन के लिये, अपना दम्भ दिखलाने के लिये, एक अनियंत्रित हृदय का लोहों से खेल विडम्बना है! किसकी रक्षा, किस दीन की सहायता के लिये तुम्हारे अस्त्र हैं?

नायक--साम्राज्य की रक्षा के लिये।

विजया--झूठ। तुम सब को जंगली हिंस्र पशु होकर जन्म लेना था। डाकू! थोड़े-से ठीकरों के लिये अमूल्य मानव-जीवन का नाश करनेवाले भयानक भेड़िये!

नायक--(स्वगत) पागल हो गई है क्या?

विजया--स्नेहमयी देवसेना को शंका से तिरस्कार किया, मिलते हुए स्वर्ग को घमंड से तुच्छ समझा, देव-तुल्य स्कंदगुप्त से विद्रोह किया, किस लिये? केवल अपना रूप, धन, यौवन दूसरे को दान करके उन्हें नीचा दिखाने के लिये? स्वार्थपूर्ण मनुष्यों की प्रतारणा में पड़कर खो दिया--इस लोक का सुख, उस लोक की शान्ति! ओह!

नायक--शांत हो!

विजया--शांति कहाँ? अपनों को दंड देने के लिये मैं स्वयं उनसे अलग हुई; उन्हे दिखाने के लिये--'मैं भी कुछ हूँ'! अपनी भूल थी, उसे अभिमान से उनके सिर दोष के रूप में मढ़

११८