पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/१३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
चतुर्थ अंक
 


धर्म्माचरण के लिये अपने राजकुमारों को तपस्वियों की रक्षा में नियुक्त करें! आह धर्मदेव! तुम कहाँ हो?

धातुसेन–- सप्तसिंधु-प्रदेश नृशंस हूणों से पदाक्रांत है। जाति भीत और त्रस्त है, और उसका धर्म्म असहाय अवस्था में पैरों से कुचला जा रहा है। क्षत्रिय राजा, धर्म्म का पालन कराने वाला राजा, पृथ्वी पर क्यों नहीं रह गया? आपने इसे विचारा है? क्यों ब्राह्मण टुकड़ो के लिये अन्य लोगों की उपजीविका छीन रहे हैं? क्यों एक वर्ण के लोग दूसरों की अर्थकरी वृत्तियाँ ग्रहण करने लगे हैं? लोभ ने तुम्हारे धर्म्म का व्यवसाय चला दिया। दक्षिणाओं की योग्यता से–स्वर्ग, पुत्र, धन, यश, विजय और मोक्ष तुम बेचने लगे। कामना से अंधी जनता के विलासी-समुदाय के ढोंग के लिये तुम्हारा धर्म्म आवरण हो गया है। जिस धर्म्म के आचरण के लिये पुष्कल स्वर्ण चाहिये, वह धर्म्म जन-साधारण की सम्पत्ति नहीं! धर्म्मवृक्ष के चारों ओर स्वर्ण के काँटेदार जाल फैलाये गये है, और व्यवसाय की ज्वाला से वह दग्ध हो रहा है। जिन धनवानों के लिये तुमने धर्म्म को सुरक्षित रक्खा, उन्होंने समझा कि धर्म्म धन से खरीदा जा सकता है। इसलिये धनोपार्जन मुख्य हुआ और धर्म्म गौण। जो पारस्य-देश की मूल्यवान मदिरा रात को पी सकता है, वह धार्मिक बने रहने के लिये प्रभात में एक गो-निष्क्रय भी कर सकता है। धर्म्म को बचाने के लिये तुम्हें राजशक्ति की आवश्यकता हुई। धर्म इतना निर्बल है कि वह पाशव बल के द्वारा सुरक्षित होगा?

ब्राह्मण--तुम कौन हो? मूर्ख उपदेशक! हट जाओ।

१३१