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[पथ में विजया और मातृगुप्त]

विजया-- नहीं कविवर! ऐसा नहीं।

मातृगुप्त-- कौन, विजया?

विजया-- आश्चर्य्य और शोक का समय नहीं है। सुकविशिरोमणी! गा चुके मिलन-संगीत, गा चुके कोमल कल्पनाओ के लचीले गान, रो चुके प्रेम के पचड़े? एक बार वह उद्बोधनगीत गा दो कि भारतीय अपनी नश्वरता पर विश्वास करके अमर भारत की सेवा के लिये सन्नद्ध हो जायें!

मातृगुप्त-- देवी! तुम देवी ......

विजया-- हाँ मातृगुप्त! एक प्राण बचाने के लिये जिसने तुम्हारे हाथ में काश्मीर-मंडल दे दिया था, आज तुम उसी सम्राट् को खोजते हो। एक नहीं, ऐसे सहस्र स्कन्दगुप्त, ऐसे सहस्रों देव-तुल्य उदार युवक, इस जन्म-भूमि पर उत्सर्ग हो जायँ! सुना दो वह संगीत-- जिससे पहाड़ हिल जाय और समुद्र काँपकर रह जाय; अँगड़ाइयाँ लेकर मुचकुन्द की मोहनिद्रा से भारतवासी जग पड़ें। हम-तुम गली-गली कोने-कोने पर्य्यटन करेंगे, पैर पड़ेंगे, लोगो को जगावेंगे!

मातृगुप्त-- वीरबाले! तुम धन्य हो। आज से मैं यही करूँगा। (देखकर) वह लो--चक्रपालित आ रहा है!

(चक्रपालित का प्रवेश)

चक्र-- लक्ष्मी की लीला, कमल के पत्तों पर जल-बिन्दु, आकाश के मेघ-समारोह-- अरे इनसे भी क्षुद्र निहार-कणिकाओं

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