पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/१४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
स्कंदगुप्त
 


की प्रभात-लीला। मनुष्य की अदृष्ट-लिपि वैसी ही है जैसी अग्नि-रेखाओं से कृष्ण मेघ में बिजली की वर्णमाला--एक क्षण में प्रज्वलित, दूसरे क्षण में विलीन होनेवाली। भविष्यत् का अनुचर तुच्छ मनुष्य केवल अतीत का स्वामी है!

मातृगुप्त--बन्धु चक्रपालित!

चक्र०--कौन, मातृगुप्त?

भीम०--(सहसा प्रवेश करके) कहाँ है मेरा भाई, मेरे हृदय का बल, भुजाओं का तेज, वसुन्धरा का श्रृंगार, वीरता का वरणीय बंधु, मालव-मुकुट आर्य्य बंधुवर्म्मा?

(प्रख्यातकीर्ति और श्रमण का प्रवेश)

प्रख्यात॰--सब पागल, लुट गये-से, अनाथ और आश्रयहीन-- यही तो हैं! आर्य्यराष्ट्र के कुचले हुए अंकुर, भग्न साम्राज्य-पोत के टूटे हुए पटरे और पतवार, ऐसे वीर हृदय! ऐसे उदार!!

मातृगुप्त--तुम कौन हो?

प्रख्यात०--सम्भवतः तुम्ही मातृगुप्त हो!

मातृगुप्त--(शंका से देखता हुआ) क्यों अहेरी कुत्तों के समान सूँघते हुए यहाँ भी! परंतु तुम ......

प्रख्यात०--संदेह मत करो मातृगुप्त! शैशव-सहचर कुमार धातुसेन की आज्ञा से मैं तुम लोगों को खोज रहा हूँ। यह लो प्रमाण-पत्र।

मातृगुप्त--(पढ़कर) धन्य सिंहल के युवराज श्रमण!

१३६