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चतुर्थ अंक
 

?विमल स्वातंत्र्य का वस मंत्र को
हमे सब भीति-धंधन से छुड़ा दो
सहारा उन अँगुलियों का मिले हाँ
रसीले राग में मन को मिला दो
तुम्हीं सत हो इसीकी चेतना हो
इसे आनन्दमय जीवन बना दो

(प्रार्थना में झुकता है; उन्मत्त भाव से शर्वनाग का प्रवेश)

शर्व॰-- छीन लिया, गोद से छीन लिया; सोने के लोभ से मेरे लालों को शूल पर के माँस की तरह सेंकने लगे! जिनपर विश्व-भर का भंडार लुटाने को मैं प्रस्तुत था, उन्हीं गुदड़ी के लालों को राक्षसों ने--हूणों ने--लुटेरों ने--लूट लिया! किसने आहों को सुना?--भगवान ने? नहीं, उस निष्ठुर ने नहीं सुना। देखते हुए भी न देखा। आते थे कभी एक पुकार पर, दौड़ते थे कभी आधी आह पर, अवतार लेते थे कभी आर्य्यों की दुर्दशा से दुखी होकर; अब नहीं। देश के हरे कानन चिता बन रहे हैं। धधकती हुई नाश की प्रचंड ज्वाला दिग्दाह कर रही है। अपने ज्वालामुखियों को बर्फ की मोटी चादर से छिपाये हिमालय मौन है, पिघलकर क्यों नहीं समुद्र से जा मिलता? अरे जड़, मूक, बधिर, प्रकृति के टीले!

(उन्मत्त भाव से प्रस्थान)

स्कंद०-- कौन है? यह शर्वनाग है क्या? क्या अन्तर्वेद भी हूणों से पादाक्रांत हुआ? अरे आर्य्यावर्त्त के दुर्दैव बिजली के

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