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स्कंदगुप्त
 


अक्षरों से क्या भविष्यत् लिख रहा है? भगवन्! यह अर्धोन्मत्त शर्वं! आर्य्यसाम्राज्य की हत्या का कैसा भयानक दृश्य है? कितना वीभत्स है! सिंहों की विहारस्थली में श्रृंगाल-वृन्द सड़ी लोथ नोच रहे हैं!

(पगली रामा का प्रवेश; स्कंद को देखकर)

रामा-- लुटेरा है तू भी! क्या लेगा, मेरी सूखी हड्डियाँ? तेरे दाँतों से टूटेंगी? देख ते--(हाथ चढ़ाती है)

स्कंद०-- कौन? रामा!

रामा-- (आश्चर्य से) मैं रामा हूँ! हाँ, जिसकी संतान को हूणों ने पीस डाला! (ठहरकर) मेरी? मेरी संतान! इन अभागों की-सी वे नहीं थी। वे तो तलवार की बारीक धार पर पैर फैलाकर सोना जानती थी! धधकती हुई ज्वाला में हँसते हुए कूद पड़ती थी। तुम (देखती हुई) लुटेरे भी नहीं, उहूँ, कायर भी नहीं; अकर्म्मण्य बातो में भुलानेवाले तुम कौन हो? देखा था एक दिन! वही तो है जिसने अपनी प्रचंड हुङ्कार से दस्युओ को कँपा दिया था, ठोकर मारकर सोई हुई अकर्म्मण्य जनता को जगा दिया था, जिसके नाम से रोएँ खड़े हो जाते थे, भुजाएँ फड़कने लगती थीं। वही स्कंद--रमणियों का रक्षक, बालको का विश्वास, वृद्धों का आश्रय, और आर्य्यावर्त्त की छत्रच्छाया। नहीं, भ्रम हुआ! तुम निष्प्रभ, निस्तेज, उसीके मलिन-चित्र-से तुम कौन हो? (प्रस्थान)

स्कंद॰-- (बैठकर) आह! मैं वही स्कंद हूँ-- अकेला निस्सहाय!

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