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स्कंदगुप्त
 

विजया-- अरे मुद्गल! जैसे पहचानता ही न हो। सच है, समय बदलने पर लोगों की आंखें भी बदल जाती हैं।

मुद्गल-- तुम कौन हो जी? मुझे बेजान-पहचान की छेड़छाड़ अच्छी नहीं लगती और तिसपर मैं हूँ ज्योतिषी। जहाँ देखो वहीं यह प्रश्न होता है; मुझे उन बातों के सुनने में भी संकोच होता है- "मुझसे रूठे हुए हैं? किसी दूसरे पर उनका स्नेह है? वह सुन्दरी कब मिलेगी? मिलेगी या नहीं?? --इस देश के छबीले छैल और रसीली छोकरियों ने यही प्रश्न गुरूजी से पाठ में पढ़ा है। अभिचार के लिये, जुआ खेलने के लिये, प्रेम के लिये, और भी, अभिसार के लिये, मुहूर्त पूछे जाते हैं!

विजया-- क्या मुद्गल! मुझे पहचान लेने का भी तुम्हें अवकाश नहीं है?

मुद्गल-- अवकाश हो या नहीं, मुझे आवश्यकता नहीं।

विजया-- क्या आवश्यकता न होने से मनुष्य, मनुष्य से बात न करें? सच है, आवश्यकता ही संसार के व्यवहारों की दलाल है! परन्तु मनुष्यता भी कोई वस्तु है मुद्गल!

मुद्गल-- उसका नाम न लो। जिस हृदय में अखंड वेग है, तीव्र तृष्णा से जो पूर्ण है, जो कृतघ्नता और क्रूरताओं का भंडार है, जो अपने सुख--अपनी तृप्ति के लिये संसार में सब कुछ करने को प्रस्तुत है, उसका मनुष्यता से क्या सम्बन्ध?

विजया-- न सही, परन्तु इतना तो बता सकोगे, सम्राट् स्कंदगुप्त से कहाँ भेंट होगी? क्योंकि यह पता चला है कि वे जीवित हैं।

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