[कुसुमपुर के राज-मंदिर में सम्राट कुमारगुप्त और उनके पारिषद्]
धातुसेन--परम भट्टारक! आपने भी स्वयं इतने विकट युद्ध किये है! मैंने तो समझा था, राजसिंहासन पर बैठे-बैठे राजदंड हिला देने से ही इतना बड़ा गुप्त-साम्राज्य स्थापित हो गया था; परंतु-
कुमारगुप्त--(हँसते हुए) तुम्हारी लंका में अब राक्षस नहीं रहते? क्यों धातुसेन!
धातुसेन--राक्षस यदि कोई था तो विभीषण, और बन्दरों में भी एक सुग्रीव हो गया था। दक्षिणापथ आज भी उनकी करनी का फल भोग रहा है। परंतु हाँ, एक आश्चर्य की बात है कि महामान्य परमेश्वर परम भट्टारक को भी युद्ध करना पड़ा! रामचंद्र ने तो, सुना था, जब वे युवराज भी न थे तभी, युद्ध किया था। सम्राट होने पर भी युद्ध!
कुमार॰-—युद्ध तो करना ही पड़ता है। अपनी सत्ता बना रखने के लिये यह आवश्यक है।
धातु॰–-अच्छा तो स्वर्गीय आर्य्य समुद्रगुप्त ने देवपुत्रों तक का राज्य-विजय किया था, सो उनके लिये परम आवश्यक था? क्या पाटलीपुत्र के समीप ही वह राष्ट्र था?
कुमार॰-—तुम भी बालि की सेना में से कोई बचे हुए हो!
धातु॰--परम भट्टारक की जय हो! बालि की सेना न थी, और वह युद्ध न था। जब उसमें लड्डू खानेवाले सुग्रीव निकल पड़े, तब फिर-
कुमार॰-—क्यों?
१०