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[कनिष्क-स्तूप के पास महादेवी की समाधि]

(अकेला पर्णदत्त, टहलते हुए)

पर्णदत्त-- सूखी रोटियाँ बचाकर रखनी पड़ती हैं। जिन्हें कुत्तों को देते हुए संकोच होता था, उन्हीं कुत्सित अन्नों का संचय! अक्षय निधि के समान उनपर पहरा देता हूँ। मैं रोऊँगा नहीं; परंतु यह रक्षा क्या केवल जीवन का बोझ वहन करने के लिये है? नहीं, पर्ण! रोना मत। एक बूँद भी आँसू आँखों में न दिखाई पड़े। तुम जीते रहो, तुम्हारा उद्देश सफल होगा। भगवान यदि होंगे तो कहेंगे कि मेरी सृष्टि में एक सच्चा हृदय था। सन्तोष कर उछलते हुए हृदय! संतोष कर, तू रोटियो के लिये नहीं जीता है; तू उसकी भूल दिखाता है, जिसने तुझे उत्पन्न किया है। परंतु जिस काम को कभी नहीं किया, उसे करते नहीं बनता, स्वांग भरते नहीं बनता; देश के बहुत-से दुर्दशा-ग्रस्त वीर-हदयों की सेवा के लिये करना पड़ेगा। मैं क्षत्रिय हूँ, मेरा यह पाप ही श्रापद्धर्म्म होगा; साक्षी रहना भगवन!

(एक नागरिक का प्रवेश)

पर्ण-- बाबा! कुछ दे दो।

नागरिक-- और वह तुम्हारी कहाँ गई वह......(संकेत करता है)

पर्ण०-- मेरी बेटी स्नान करने गई है। बाबा! कुछ दे दो।

नागरिक-- मुझे उसका गान बड़ा प्यारा लगता है, अगर वह गाती, तो तुम्हे कुछ अवश्य मिल जाता। अच्छा, फिर

आऊँगा। (जाता है)

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