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पंचम अंक
 

पर्ण॰-- आवेंगे बेटी! तुम बैठो, मैं अभी आता हूँ।

(प्रस्थान)

देवसेना-- संगीत-सभा की अन्तिम लहरदार और आश्रयहीन तान, धूपदान की एक कीण गंध-धूम-रेखा, कुचले हुए फूलों का म्लान सौरभ, और उत्सव के पीछे का अवसाद, इन सबों की प्रतिकृति मेरा क्षुद्र नारी-जीवन! मेरे प्रिय गान! अब क्यों गाऊँ और क्या सुनाऊँ? इस बार-बार के गाये हुए गीतों में क्या आकर्षण है--क्या बल है जो खींचता है? केवल सुनने की ही नहीं, प्रत्युत् जिसके साथ अनन्त काल तक कंठ मिला रखने की इच्छा जग जाती है।

(गाती है)

शून्य गगन में खेाजता जेैसे चन्द्र निराश
राका में रमणीय यह किसका मधुर प्रकाश
हृदय! तू खोजता किसको छिपा है कौन-सा तुझमें
मचलता है बता क्या दूँ छिपा तुझसे न कुछ मुझमें
रस-निधि में जीवन रहा, मिटी न फिर भी प्यास
मुँह खोले मुक्तामयी सीपी स्वाती आस
हृदय! तू है बना जलनिधि, लहरियाँ खेलती तुझमें
मिला अब कौन-सा नवरत्न जो पहले न था तुझमें

(प्रस्थान)

(वेश बदले हुए स्कन्दगुप्त का प्रवेश)
स्कंद॰-- जननी! तुम्हारी पवित्र स्मृति को प्रणाम।

(समाधि के समीप घुटने टेककर फूल चढ़ाता है)


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