माँ! अन्तिम बार आशीर्वाद नहीं मिला, इसीसे यह कष्ट; यह अपमान। माँ! तुम्हारी गोद में पलकर भी तुम्हारी सेवा न कर सका--यह अपराध क्षमा करो।
(देवसेना का प्रवेश)
देवसेना--(पहचानती हुई) कौन? अरे! सम्राट् की जय हो!
स्कंद॰-- देवसेना!
देवसेना-- हाँ राजाधिराज! धन्य भाग्य, रज दर्शन हुए।
स्कंद॰-- देवसेना! बड़ी-बड़ी कामनाएँ थीं।
देवसेना-- सम्राट!
स्कंद॰-- क्या तुमने यहाँ कोई कुटी बना ली है?
देवसेना-- हाँ, यही गाकर भीख माँगती हूँ, और आर्य्य पर्दणत्त के साथ रहती हुई महादेवी की समाधि परिष्कृत करती हूँ।
स्कंद॰-- मालवेश-कुमारी देवसेना! तुम और यह कर्म्म!
समय जो चाहे करा ले। कभी हमने भी तुझे अपने काम का
बनाया था।
देवसेना! यह सब मेरा प्रायश्चित्त है। आज मैं बंधुवर्म्मा
की आत्मा को क्या उत्तर दूँगा? जिसने नि:स्वार्थं भाव से सब
कुछ मेरे चरणों मे अर्पित कर दिया था, उससे कैसे उॠण
होऊँगा? मैं यह सब देखता हूँ और जीता हूँ।
देवसेना-- मैं अपने लिये ही नहीं माँगती देव! आर्य्य पर्णदत्त
ने साम्राज्य के बिखरे हुए सब रत्न एकत्र किये हैं, वे सब निर-
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