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स्कंदगुप्त
 

देवसेना-- तब तो और भी नहीं। मालव का महत्त्व तो रहेगा ही, परन्तु उसका उद्देश्य भी सफल होना चाहिये। आपको अकर्म्मण्य बनाने के लिये देवसेना जीवित न रहेगी। सम्राट्, क्षमा हो। इस हृदय में ..... आह! कहना ही पड़ा, स्कंदगुप्त को छोड़कर न तो कोई दूसरा आया और न वह जायगा। अभिमानी भक्त के समान निष्काम होकर मुझे उसीकी उपासना करने दीजिये; उसे कामना के भंवर में फंसाकर कलुषित न कीजिये। नाथ! मैं आपकी ही हूँ, मैंने अपने को दे दिया है, अब उसके बदले कुछ लिया नहीं चाहती।

(पैर पर गिरती है)

स्कंद०-- (आँसू पोंछता हुआ) उठो देवसेना! तुम्हारी विजय हुई। आज से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि, मैं कुमार-जीवन ही व्यतीत करूँगा। मेरी जननी की समाधि इसमें साक्षी है।

देवसेना-- हैं, हैं, यह क्या किया!

स्कंद-- कल्याण का श्रीगणेश। यदि साम्राज्य का उद्धार कर सका तो उसे पुरगुप्त के लिये निष्कंटक छोड़ जा सकूँगा।

देवसेना-- (निःश्वास लेकर) देवव्रत! तुम्हारी जय हो। जाऊँ आर्य्य पर्णदत्त को लिवा लाऊँ। (प्रस्थान)

(विजया का प्रवेश)

विजया-- इतना रक्तपात और इतनी ममता, इतना मोह-- जैसे सरस्वती के शोणित जल में इन्दीवर का विकास। इस कारण अब मैं भी मरती हूँ। मेरे स्कंद! मेरे प्राणाधार!साँचा:NOP

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