स्कंद--(घूमकर)--यह कौन, इन्द्रजाल मंत्र? अरे विजया!
विजया--हाँ, मैं ही हूँ।
स्कंद--तुम कैसे?
विजया--तुम्हारे लिये मेरे अन्तस्तल की आशा जीवित है!
स्कंद--नहीं विजया! उस खेल को खेलने की इच्छा नहीं; यदि दूसरी बात हो तो कहो। उन बातो को रहने दो।
विजया--नहीं, मुझे कहने दो। (सिसकती हुई) मैं अब भी.........
स्कंद--चुप रहो विजया! यह मेरी आराधना की तपस्या की भूमि है, इसे प्रवञ्चना से कलुषित न करो। तुमसे यदि स्वर्ग भी मिले, तो मैं उससे दूर ही रहना चाहता हूँ।
विजया--मेरे पास अभी दो रत्न-गृह छिपे हैं, जिनसे सेना एकत्र करके तुम सहज ही इन हूणो को परास्त कर सकते हो।
स्कंद०--परन्तु, साम्राज्य के लिये मैं अपने को नही बेच सकता। विजया! चली जाओ; इस निर्लज्ज प्रलोभन की आवश्यकता नहीं। यह प्रसङ्ग यही तक।
विजया--मैंने देशवासियों को सन्नद्ध करने का संकल्प किया है, और भटार्क का संसर्ग छोड़ दिया है। तुम्हारी सेवा के उपयुक्त बनने का उद्योग कर रही हूँ। मैं मालव और सौराष्ट्र को तुम्हारे लिये स्वतंत्र करा दूँगी; अर्थ-लोभी हूण-दस्युओं से उसे छुड़ा लेना मेरा काम है। केवल तुम स्वीकार कर लो।
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