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स्कंदगुप्त
 


स्कंद०–-विजया! तुमने मुझे इतना लोभी समझ लिया है? मैं सम्राट बनकर सिंहासन पर बैठने के लिये नहीं हूँ। शस्त्र-बल से शरीर देकर भी यदि हो सका तो जन्म-भूमि का उद्धार कर लूँगा। सुख के लोभ से, मनुष्य के भय से, मैं उत्कोच देकर क्रीत साम्राज्य नहीं चाहता।

विजया--क्या जीवन के प्रत्यक्ष सुखो से तुम्हें वितृष्णा हो गई है? आओ, हमारे साथ बचे हुए जीवन का आनंद लो।

स्कंद०--और असहाय दीनों को, राक्षसों के हाथ, उनके भाग्य पर छोड़ दें?

विजया--कोई दुःख भोगने के लिये है, कोई सुख। फिर सबका बोझ अपने सिर पर लादकर क्यो व्यस्त होते हो?

स्कंद॰--परंतु इस संसार का कोई उद्देश है। इसी पृथ्वी को स्वर्ग होना है, इसीपर देवताओं का निवास होगा; विश्व-नियन्ता का ऐसा ही उद्देश मुझे विदित होता है। फिर उसकी इच्छा क्यो न पूर्ण करूँ? विजया! मै कुछ नहीं हूँ, उसका अस्त्र हूँ--परमात्मा का अमोघ अस्त्र हूँ। मुझे उसके संकेत पर केवल अत्याचारियो के प्रति प्रेरित होना है। किसीसे मेरी शत्रुता नहीं, क्योंकि मेरी निज की कोई इच्छा नहीं। देशव्यापी हलचल के भीतर कोई शक्ति कार्य कर रही है, पवित्र प्राकृतिक नियम अपनी रक्षा करने के लिये स्वयं सन्नद्ध हैं। मैं उसी-ब्रह्मचक्र का एक ...

विजया--रहने दो यह थोथा ज्ञान। प्रियतम! यह भरा हुआ यौवन और प्रेमी हृदय विलास के उपकरणों के साथ प्रस्तुत है। उन्मुक्त आकाश के नील-नीरद-मंडल में दो बिजलियों के

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