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प्रथम अंक
 



धातु॰--उनकी बड़ी सुन्दर ग्रीवा में लड्डू अत्यंत सुशोभित होता था, और सबसे बड़ी बात तो थी बालि के लिये--उनकी तारा का मंत्रित्व। सुना है सम्राट! स्त्री की मंत्रणा बड़ी अनुकूल और उपयोगी होती है, इसीलिये उन्हें राज्य की झंझटो से शीघ्र छुट्टी मिल गई। परम भट्टारक की दुहाई! एक स्त्री को मंत्री आप भी बना लें, बड़े-बड़े दाढ़ी मूँछवाले मंत्रियों के बदले उसकी एकांत मंत्रणा कल्याणकारिणी होगी।

कुमार॰--(हँसते हुए) लेकिन पृथ्वीसेन तो मानते ही नहीं।

धातु॰--तब मेरी सम्मति से वे ही कुछ दिनों के लिये स्त्री हो जायँ; क्यों कुमारामात्यजी?

पृथ्वीसेन–-पर तुम तो स्त्री नहीं हो जो मैं तुम्हारी सम्मति मान लूँ?

कुमार--(हँसता हुआ) हाँ, तो आर्य्य समुद्रगुप्त को विवश होकर उन विद्रोही विदेशियों का दमन करना पड़ा, क्योंकि मौर्य्य साम्राज्य के समय से ही सिंधु के उस पार का देश भी भारत-साम्राज्य के अन्तर्गत था। जगद्विजेता सिकन्दर के सेनापति सिल्यूकस से उस प्रान्त को मौर्य्य सम्राट चंद्रगुप्त ने लिया था।

धातु॰--फिर तो लड़कर ले लेने की एक परम्परा-सी लग जाती है। उनसे उन्होंने, उन्होंने उनसे, ऐसे ही लेते चले आये हैं। उसी प्रकार आर्य्य!......

कुमार॰-—उँह! तुम समझते नही। मनु ने इसकी व्यवस्था दी है।

धातु॰-–नहीं धर्म्मावतार! समझ में तो इतनी बात आ गई

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