पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
स्कंदगुप्त
 


स्कंद--(पैर छुड़ाकर) विजया! पिशाची! हट जा; नहीं जानती, मैंने आजीवन कौमार-व्रत की प्रतिज्ञा की है।

विजया--तो क्या मै फिर हारी?

(भटार्क का प्रवेश)

भटार्क--निर्लज्ज हारकर भी नहीं हारता, मरकर भी नहीं मरता।

विजया--कौन, भटार्क?

भटार्क--हाँ, तेरा पति भटार्क। दुश्चरित्रे! सुना था कि तुझे देश-सेवा करके पवित्र होने का अवसर मिला है, परन्तु हिस्र पशु कभी एकादशी का व्रत करेगा--कभी पिशाची शांति-पाठ पढ़ेगी!

विजया--(सिर नीचा करके) अपराध हुआ।

भटार्क–-फिर भी किसके साथ? जिसके ऊपर अत्याचार करके मै भी लज्जित हूँ, जिससे क्षमा-याचना करने मैं आ रहा था। नीच स्त्री!

विजया--घोर अपमान, तो बस...

(छुरी निकालकर आत्म-हत्या करती है)

स्कंद०–-भटार्क! इसके शव का संस्कार करो।

भटार्क--देव! मेरी भी लीला समाप्त है।

(छुरी निकालकर अपने को मारना चाहता है, स्कंद हाथ पकड़ लेता है)

स्कंद०--तुम वीर हो, इस समय देश को वीरो की आवश्य-

१५६