स्कंद--(पैर छुड़ाकर) विजया! पिशाची! हट जा; नहीं जानती, मैंने आजीवन कौमार-व्रत की प्रतिज्ञा की है।
विजया--तो क्या मै फिर हारी?
(भटार्क का प्रवेश)
भटार्क--निर्लज्ज हारकर भी नहीं हारता, मरकर भी नहीं मरता।
विजया--कौन, भटार्क?
भटार्क--हाँ, तेरा पति भटार्क। दुश्चरित्रे! सुना था कि तुझे देश-सेवा करके पवित्र होने का अवसर मिला है, परन्तु हिस्र पशु कभी एकादशी का व्रत करेगा--कभी पिशाची शांति-पाठ पढ़ेगी!
विजया--(सिर नीचा करके) अपराध हुआ।
भटार्क–-फिर भी किसके साथ? जिसके ऊपर अत्याचार करके मै भी लज्जित हूँ, जिससे क्षमा-याचना करने मैं आ रहा था। नीच स्त्री!
विजया--घोर अपमान, तो बस...
(छुरी निकालकर आत्म-हत्या करती है)
स्कंद०–-भटार्क! इसके शव का संस्कार करो।
भटार्क--देव! मेरी भी लीला समाप्त है।
(छुरी निकालकर अपने को मारना चाहता है, स्कंद हाथ पकड़ लेता है)
स्कंद०--तुम वीर हो, इस समय देश को वीरो की आवश्य-
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