पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/१६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।


[ महाबोधि-विहार ]

( अनन्तदेवी, पुरगुप्त, प्रख्यातकीर्त्ति, हूण-सेनापति )

अनन्त०--इसका उत्तर महाश्रमण देंगे।

हूण-सेनापति--मुझे उत्तर चाहिये, चाहे कोई दे।

प्रख्यात०--सेनापति! मुझसे सुनो। समस्त उत्तरापथ का बौद्ध संघ जो तुम्हारे उत्कोच के प्रलोभन में भूल गया था, वह अब न होगा।

हूण-सेना०--तभी बौद्ध जनता से जो सहायता हूण-सैनिकों को मिलती थी, बन्द हो गई; और उलटा तिरस्कार!

प्रख्यात०--वह भ्रम था। बौद्धों को विश्वास था कि हूण लोग सद्धर्म्म के उत्थान करने में सहायक होंगे, परन्तु ऐसे हिंसक लोगों को सद्धर्म्म कोई आश्रय नहीं देगा। ( पुरगुप्त की ओर देख कर ) यद्यपि संघ ऐसे अकर्म्मण्य युवक को आर्य्यसाम्राज्य के सिहासन पर नहीं देखा चाहता, तो भी बौद्ध धर्म्माचरण करेंगे, राजनीति में भाग न लेंगे।

अनन्त०--भिक्षु! क्या कह रहे हो? समझकर कहना।

हूण-सेना०--गोपाद्रि से समाचार मिला है, स्कंदगुप्त फिर जी उठा है, और सिधु के इस पार के हूण उसके घेरे में है; संभवतः शीघ्र ही अन्तिम युद्ध होगा। तब तक के लिये संघ को प्रतिज्ञा भंग न करनी चाहिये।

पुरगुप्त--क्या युद्ध! तुम लोगो को कोई दूसरी बात नहीं...

अनन्त०--चुप रहो।

१६०