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पंचम अंक
 

पुरगुप्त-- तब फिर एक पात्र। (सेवक देता है)

प्रख्यात०-- अनार्य्य! विहार में मद्यपान! निकलो यहाँ से।

अनंत-- भिक्षु! समझकर बोलो; नहीं तो मुंडित मस्तक भूमि पर लोटने लगेगा!

हूण-सेना०-- इसीकी सब प्रवञ्चना है; इसका तो मैं अवश्य ही वध करूँगा।

प्रख्यात०-- क्षणिक और अनात्मभव में किसका कौन वध करेगा मूर्ख!

हूण-सेना०-- पाखंड! मरने के लिये प्रस्तुत हो!

प्रख्यात॰-- सिंहल के युवराज की प्रेरणा से हम लोग इस सत्पथ पर अग्रसर हुए है; वहाँ से नहीं लौट सकते।

(हूण-सेनापति मारना चाहता है)

कुमार धातुसेन--(सहसा प्रवेश करके) "सम्राट् स्कन्दगुप्त की जय!”

(सैनिक सवको बन्दी कर लेते हैं)

धातु०-- कुचक्रियो! अपने फल भोगने के लिये प्रस्तुत हो जाओ! भारत के भीतर की बची हुई समस्त हूण-सेना के रुधिर से यह उन्हीं की लगाई हुई ज्वाला शांत होगी।

अनंत०-- धातुसेन! यह क्या, तुम हो?

धातु०-- हाँ महादेवी! एक दिन मैंने समझाया था, तब मेरी अवहेला की गई; यह उसीका परिणाम है। (सैनिकों से) सबको शीघ्र साम्राज्य-स्कन्धावार में ले चलो।

[सबका प्रस्थान]

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