पुरगुप्त-- तब फिर एक पात्र। (सेवक देता है)
प्रख्यात०-- अनार्य्य! विहार में मद्यपान! निकलो यहाँ से।
अनंत-- भिक्षु! समझकर बोलो; नहीं तो मुंडित मस्तक भूमि पर लोटने लगेगा!
हूण-सेना०-- इसीकी सब प्रवञ्चना है; इसका तो मैं अवश्य ही वध करूँगा।
प्रख्यात०-- क्षणिक और अनात्मभव में किसका कौन वध करेगा मूर्ख!
हूण-सेना०-- पाखंड! मरने के लिये प्रस्तुत हो!
प्रख्यात॰-- सिंहल के युवराज की प्रेरणा से हम लोग इस सत्पथ पर अग्रसर हुए है; वहाँ से नहीं लौट सकते।
(हूण-सेनापति मारना चाहता है)
कुमार धातुसेन--(सहसा प्रवेश करके) "सम्राट् स्कन्दगुप्त की जय!”
(सैनिक सवको बन्दी कर लेते हैं)
धातु०-- कुचक्रियो! अपने फल भोगने के लिये प्रस्तुत हो जाओ! भारत के भीतर की बची हुई समस्त हूण-सेना के रुधिर से यह उन्हीं की लगाई हुई ज्वाला शांत होगी।
अनंत०-- धातुसेन! यह क्या, तुम हो?
धातु०-- हाँ महादेवी! एक दिन मैंने समझाया था, तब मेरी अवहेला की गई; यह उसीका परिणाम है। (सैनिकों से) सबको शीघ्र साम्राज्य-स्कन्धावार में ले चलो।
[सबका प्रस्थान]
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