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स्कंदगुप्त
 

अनंत०-- क्यों लज्जित करते हो स्कंद ! तुम भी तो मेरे पुत्र हो ?

स्कंद०-- आह ! यही यदि होता मेरी विमाता ! तो देश की इतनी दुर्दशा न होती ।

अनंत०-- मुझे क्षमा करो सम्राट् !

स्कंद॰-- माता का हृदय सदैव क्षम्य है । तुम जिस प्रलोभन से इस दुष्कर्म में प्रवृत्त हुई हो, वही ते कैकेयी ने किया था । तुम्हारा इसमे दोष नहीं । जब तुमने आज मुझे पुत्र कहा, तो मैं भी तुम्हे माता ही समझूँगा । परंतु कुमारगुप्त के इस अग्नितेज को तुमने अपने कुत्सित कर्मों की राख से ढक दिया। पुरगुप्त !

पुरगुप्त-- देव ! अपराध हुआ । ( पैर पकड़ता है )

स्कंद०-- भटार्क ! मैने तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी की । लो, आज इस रणभूमि में मैं पुरगुप्त के युवराज बनाता हूँ। देखना, मेरे बाद जन्मभूमि की दुर्दशा न हो । ( रक्त का टीका पुरगुप्त को लगाता है )

भटार्क-- देवव्रत ! अभी आपकी छत्रछाया में हम लोगों को बहुत-सी विजय प्राप्त करनी है; यह आप क्या कहते हैं ?

स्कन्द०-- क्षत-जर्जर शरीर अब बहुत दिन नहीं चलेगा, इसीसे मैने भावी साम्राज्य-नीति की घोषणा कर दी है । इस हूण को छोड़ दो, और कह दो कि सिधु के इस पार के पवित्र देश में कभी आने का साहस न करे।

खिङ्गिल-- आर्य्यसम्राट् ! आपकी आज्ञा शिरोधार्य्य है ।

[ जाता है ]

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