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स्कंदगुप्त
 

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी- होड़ लगाई

लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई

(स्कंदगुप्त का प्रवेश)

स्कंद०-- देवसेना !

देव०-- जय हो देव ! श्रीचरणों में मेरी भी कुछ प्रार्थना है ।

स्कंद॰-- मालवेश-कुमारी ! क्या आज्ञा है? आज बंधुवर्मा इस आनन्द को देखने के लिये नहीं हैं ! जननी जन्मभूमि के उद्धार करने की जिस वीर की दृढ़ प्रतिज्ञा थी, जिसका ऋण कभी प्रतिशोध नहीं किया जा सकता, उसी वीर बंधुवर्म्मा की भगिनी मालवेश-कुमारी देवसेना की क्या आज्ञा है ?

देवसेना-- मैं मृत भाई के स्थान पर यथाशक्ति सेवा करती रही; अब मुझे छुट्टी मिले !

स्कंद०-- देवी ! यह न कहो । जीवन के शेष दिन, कर्म्म के अवसाद में बचे हुए हम दुखी लोग, एक दूसरे का मुँह देखकर काट लेंगे । हमने अन्तर की प्रेरणा से शस्त्र द्वारा जो निष्ठुरता की थी, वह इसी पृथ्वी को स्वर्ग बनाने के लिये । परन्तु इस नंदन की वसन्त-श्री, इस अमरावती की शची, इस स्वर्ग की लक्ष्मी,

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