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पंचम अंक
 


तुम चली जाओ-- ऐसा मैं किस मुंह से कहूँ ? ( कुछ ठहरकर सोचते हुए ) और किस वज्र-कठोर हृदय से तुम्हें रोकूँ ?

देवसेना ! देवसेना !! तुम जाओ । हतभाग्य स्कंदगुप्त, अकेला स्कंद, ओह !!

देवसेना-- कष्ट, हृदय की कसौटी है, तपस्या अग्नि है । सम्राट्य दि इतना भी न कर सके तो क्या ! सब क्षणिक सुखों का अंत है । जिसमें सुखों का अंत न हो, इसलिये सुख करना ही न चाहिये । मेरे इस जीवन के देवता ! और उस जीवन के प्राप्य ! क्षमा !

(घुटने टेकती है; स्कन्द उसके सिर पर हाथ रखता है ।)

[यवनिका]

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