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प्रथम अंक
 


कुमार॰--महासान्धि-विग्रहिक! साधु! यह वंश-परंपरागत तुम्हारी ही विद्या है।

पृथ्वीसेन--सम्राट के श्रीचरणों का प्रताप है। सौराष्ट्र से भी नवीन समाचार मिलनेवाला है। इसीलिये युवराज को वहाँ भेजने का मेरा अनुरोध था।

भटार्क–-सौराष्ट्र की गति-विधि देखने के लिये एक रणदक्ष सेनापति की आवश्यकता है। वहाँ शक-राष्ट्र बड़ा चञ्चल अथच भयानक है।

पृथ्वीसेन--(गूढ़ दृष्टि से देखते हुए) महाबलाधिकृत| आवश्यकता होने पर आपको वहाँ जाना ही होगा, उत्कंठा की आवश्यकता नहीं।

भटार्क--नहीं, मै तो.. ... ..

कुमार॰-–महाबलाधिकृत! तुम्हारी स्मरणीय सेवा स्वीकृत होगी। अभी आवश्यकता नहीं।

धातुसेन–-( हाथ जोड़कर ) यदि दक्षिणापथ पर आक्रमण का आयोजन हो तो मुझे आज्ञा मिले। मेरा घर पास है, मैं जा कर स्वच्छंदता-पूर्वक लेट रहूँगा, सेना को भी कष्ट न होने पावेगा।

(सब हँसते है)

मुद्गल--जय हो देव। पाकशाला पर चढ़ाई करनी हो तो मुझे आज्ञा मिले। मैं अभी उसका सर्वस्वांत कर डालूँ।

( फिर सब हँसते हैं। गंभीर भाव से अभिवादन करते हुए--एक ओर पृथ्वीसेन और दूसरी ओर भटार्क का प्रस्थान। )

कुमार॰--मुद्गल! तुम्हारा कुछ... .. ..

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