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विक्रमादित्य


जिसके नाम से विक्रमो संवत् का प्रचार है, भारत के आ्राबाल-वृद्ध-परिचित उस प्रसिद्ध विक्रमादित्य का ऐतिहासिक अस्तित्व कुछ विद्वान लोग स्वीकार नहीं करते । इसके कई कारण है। उसका कोई शिलालेख नहीं मिलता । विक्रमी संवत् का उल्लेख प्राचीन ग्रंथो में नहीं है । स्वयं मालच में अति प्राचीन काल से एक मालव-संवत् का प्रचार था, जैसे―― ‛मालवानांगणइस्थित्या याते शतचतुष्टये --इत्यादि । इसलिये कुछ विद्वानो का मत है कि शुप्तवंशी प्रताषी द्वितीय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ही असली विक्रमा- दित्य था, उसीने सौराष्ट्र के शकों को पराजित किया औार प्रच- लित मालव-संवत् के साथ अपनी ‛विक्रम’-उपाधि जोड़कर विक्रमी संवत् का प्रचार किया ।

परन्तु यह मत निस्सार है ; क्योंकि चद्रगप्त द्वितीय का नाम तो चंद्रगुप्त था, पर उपाधि विक्रमादित्य थी ; उसने सौराष्ट्र के शको को पराजित किया । इससे यह तात्पर्य निकलता है कि शकारि होना विक्रमादित्य होने के लिये आ्वश्यक था । चंद्रगुप्ट द्वितोय थे शकारि होने का हम आगे चलकर विवेचन करेंगे । पर चंद्रगुप्त उज्जयिनी-नाथ न होकर पाटलीपुत्र के थे । उनके शिलालेखों में गुप्त-सवत् व्यवहृत है; तब वह दो संवतो के अकेले प्रचारक नहीं हो खसकते । विक्रमादि्त्य उनकी उपाधि थी, नाम नहीं था । इन्हीं के लिए‛कथासरित्सागर’ में लिखा है-“विक्रमादित्य इत्यासीद्राजापाटलिपुत्रके” । सिकन्दरसानी और आ्लमगीरसानी के उदाहरण पर मानना होगा कि जिसकी ऐसी