पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/२१८

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विक्रमादित्य
 

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विक्रमादित्य यमुना के पश्चिमी तट पर नहीं मिला । समुद्रगुप्त के शिलालेख से प्रकट होता है कि उसी ने विजय-यात्रा में राजाओं को भारतीय । पद्धति के अनुसार पराजित किया । तात्पर्य, कुछ लोगो से उपहार : लिया, कुछ लोगों को उनके सिहासनों पर बिठला दिया, कुछ लोगों से नियमित कर लिया, इत्यादि । चन्द्रगुप्त के पहले ही यह सब हो चुका था । वस्तुतः ये सब शासन में स्वतन्त्र थे । तब कैसे। मान लिया जाय कि सौराष्ट्र और मालव में शकों को चन्द्रगुप्त ने निमूल किया, जिसका उल्लेख स्वयं चन्द्रगुप्त के किसी भी शिलालेख में नहीं मिलता । गुप्तवंशियों को राष्ट्रनीति सफल हुई, वे भारत के प्रधान सम्राट् माने जाने लगे। पर स्वयं चन्द्रगुप्त का समकालीन नरवर्मा ( Gangdhar के शिलालेख में) और वह भी मालव का स्वतन्त्र नरेश माना जाता है । फिर मालवचक्रवर्ती उज्जयिनीनाथ विक्रमादित्य और सम्राट् चन्द्रगुप्त, जो । मगध और कुसुमपुर के थे, कैसे एक माने जा सकते हैं ? चन्द्र गुप्त का समय ४१३ ई० तक है। इधर मन्दसोर वाले ४२४ ई० के शिलालेख में विश्ववर्मा और उसके पिता नरवर्मा स्वतन्त्र मालवेश हैं। यदि मालव गुप्तों के अधीन होता तो अवश्य किसी गुप्तराजाधिराज का उसमें उल्लेख होता, जैसा कि पिछले शिलालेख में ( जो ४३७ ई० का है) कुमारगुप्त का उल्लेख है-“वनान्तवान्तस्फुटपुष्पहासिनी, कुमारगुप्ते पृथिवी प्रशासति । इससे यह सिद्ध हो जाता है कि चन्द्रगुप्त का सम्पूर्ण अधिकार मालव पर नहीं था, वह उज्जयिनी-नाथ नहीं थे। उनकी उपाधि विक्रमादिल्युथी, तब उनके पहले एक विक्रमादित्य ३८५ से पूर्व हुए थे। हमारे प्राचीन लेखों में भी इस प्रथम विक्रमादित्य का अनु