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स्कंदगुप्त
 


अधिकारी होने के लिये समय की आवश्यकता है। बड़े लोगों की एक दृढ़ धारणा होती है कि, 'अभी टकराने दो, ऐसे बहुत आया-जाया करते हैं।'

मातृगुप्त--तब तो बड़ी कृपा है। मैं अवश्य चलूँगा। काश्मीरमंडल में हूणों का आतंक है, शास्त्र और संस्कृत-विद्या का कोई पूछनेवाला नहीं। म्लेच्छाक्रान्त देश छोड़कर राजधानी मे चला आया था। अब आप ही मेरे पथ-प्रदर्शक हैं।

मुद्गल--अच्छा तो मैं जाता हूँ, शीघ्र ही मिलूंगा। तुम चलने के लिये प्रस्तुत रहना।

(जाता है)

मातृगुप्त--काश्मीर! जन्मभूमि!! जिसकी धूलि में लोट कर खड़े होना सीखा, जिसमे खेल-खेलकर शिक्षा प्राप्त की, जिसमें जीवन के परमाणु संगठित हुए थे, वही छूट गया! और बिखर गया एक मनेाहर स्वप्न, आह! वही जो मेरे इस जीवन-पथ का पाथेय रहा!

प्रिय!
संसृति के वे सुंदरतम क्षण यों ही भूल नहीं जाना
‘वह उच्छृङ्खलता थी अपनी'--कहकर मन मत बहलाना
मादकता-सी तरल हँसी के प्याले में उठती लहरी
मेरे निश्वासों से उठकर अधर चूमने को ठहरी
मैं व्याकुल परिरंभ-मुकुल में बन्दी अलि-सा काँप रहा
छलक उठा प्याला, लहरी में मेरे सुख को माप रहा
सजग सुप्त सौंदर्य्य हुआ, हो चपल चलीं भौहें मिलने
लीन हो गई लहरें, लगे मेरे ही नख छाती छिलने

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