पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/२३१

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स्कंदगुप्त
 

स्कंद्गुप्त परम भारावत श्री विक्रमादित्य स्कन्द्गुप्त: के साम से उल्लेख मिलता है । इनके शिलालेख से प्रकट है कि कुल-लक्ष्मी विचूलित थी; स्लेच्छों औार हूरणों से आय्योवत्तें आक्रॉत था । अपनी सत्ता बलाये रखने के लिये इन्हींने पृथ्वी पर सोकर रातें विताई । हूणों के युद्ध में जिसके विकट, पराक्रस से धरा विक़रंपित हुई...जिसने. सैराष्टूर के शकों का भूलोच्छेद करके पर्णदृत्त को बहाँ का शासक नियत किया, वह स्कंदूगुण्त ही थे । जूनागढ़ वाले लेख में इसका स्पष्ट उल्लेख है। स्कंदगुप्त की प्रशंसा सें उसमें लिखा है-

  • श्रापिच जितमिव तेन प्रथयन्ति यश्ंसति यस्य

रिपवोण्याम्ख भग्रत्पां निर्वबना न्खेच्छदेशे पु पर्णद्त्त के पुत्र चतक्रपालित ने सुदृर्शन झील ' का संस्कार कराया था, उससे अनुमान होता है कि अंतिम शक-चत्रपं रुद्रसिंह की पराजय वाली घटनता ईसवी सन् ४५७ के करीब हुई थी। स्कंगुप्त को सौराष्ट्र के शकें और तोरमाण के पूर्वर्ती हूणों से लगातार युद्ध करना पड़ा । इधर वैसातृक भाई पुरणुप्त से ्रातरिक दृंढद् भी चल रहा था। उस समय की विचलित राजलीति को स्थिर करने के लिये प्राचीन राजधानी पाटलिपुत्र या अयेाध्या से दूर एक केन्द्रस्थल में अपनी राजधानी वनाता आवश्यक था ! इसलिये वर्तमान मालव की मौथ्यकाल की अ्रबंती नगरी को ही स्कंदगुण्त ते अपने सांम्राज्य का केंद्र वनाया, औ्र शष तथा ूणों केा परास्त करके उत्तरीय भारत से हूरण तथा शकों का राज्य निसूल कर * विक्रमादित्य थारण की । 7 की उपाश्रि २०

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