पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/२३८

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कालिदास
 

कालिदास पुर के सम्रा्ट् ' वन्पुष्प ? सालाधारिणी यवनियां से सुरक्तित दिखाई केत हैं । यह संभवतः उस प्रथा का वणेंन है जे यवन- सिल्यूकस-कन्या से चन्द्रगुप्त का परिणथ हेाने पर मौथ्यय औार उसके बाद शंगवंश में प्रचलित रही हे। । यवनियेां का व्यवहार कीत दासी औार परिचारिकाओां के रूप में राजकुल सें था । यह काल इसवी पूवें प्रथम शताब्दी तक रहा हे।गा । नाखककार कालिदास * मालविकामिसित्र * में राजसूय का स्परण करले पर भी बौद्ध प्रभाव्र से मुक्त नहीं थे, क्येांकि ' शारुंतल * में धीवर के। सुख से कहलाया है- श्रोत्रिय:*--और भी- इन शब्द्ों पर बौद्ध धस्म्े की आाप है । नाटककार ने अपने पूर्व- वर्ती नाटककारों के जो नाम लिए हैं, उनमें सौमिल और कविपुत्र के नाट्यरत्नों का पता नहीं । भास के नाटकों केा चौथी शताब्दी ईसवी पूर्व पनुभारणकम्म्म दारुणेा्जुकम्पा यृटुरेव सरस्वती श्रतिमहती न हीयताम् "' ww का साना गया है ! ( ३ ) नाटककार ने सालविकाशि सित्र * की कथा का जिस रुप में वर्णन किया है, बह उसके समय से बहुत एपुरानी तहीं जान पड़ती । शुंगवंशियां के पतन-काल में विक्रमादि्त्य का सालवगण- राष्ट्रपति के रूप में अभ्युद्य हुआ । उसी काल में कालिदास के होने से शुंगो की चरच्चो बहुत तहाजी-ली माल्लूम हेाती है। ( ४ ) * जामित्र * श्रार ' हारा * इत्यादि शब्दु, जिनका प्रचार भारत में ईेंसा की पाँचवीं शताब्दी के समीप हुआ है, नाटक में नहीं पाये जाते । धैर शाकुंतल * की जिस प्रति का हम उल्लेख कर चुके हैं, उसमें स्पष्टरपेण विक्रमादित्य से २९

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