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इलच्छाया व्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्तात् --(भेघदूत ) णिअअच्छाश्नावइअरसामलइअसा अरोअरजलढन्तम् -(सेतुबंध) ऐसा जान पड़ता है कि किसी कारण से प्रवरसेन और मातृगुप्त ( कालिदास ) में अनबन हो गई, और उसे राजसभा तथा काश्मीर को छोड़कर मालव आना पड़ा। शास्त्री महोदय के उस मत का निराकरण किया जा चुका है कि यशोधर्मदेव * विक्रमादित्य' नहीं थे। फिर संभवतः इन्हें स्कंदगुप्त विक्रमादित्य का ही आश्रित माननी पड़ेगा, क्योकि तुजीन और तोरमाण के समय में काश्मीर आपस के विग्रह के कारण अरक्षित था । उज्जयिनी के विक्रमादित्य के लिये यह मिलता भी है कि उसने 4 सकाश्मीरान्सकौवेरीकाष्ठाश्चकरदीकृता। यह स्कंदगुप्त विक्रमादित्य की ही वदान्यता थी कि काश्मीर-विजय करके उसे मातृगुप्त को दान कर दिया। | चीनी यात्री हुएन्सांग ने लिखा है कि कुमारगुप्त की सभा मे दिङ्नाग के दादागुरु मनोरथ' को हराने में कालिदास को प्रतिभा ने काम किया था। कुमारगुप्त का समय ४५५ ई० तक है। किशोर मातृगुप्त ने कुमारगुप्त के समय में ही विद्या का परिचय दिया । मनोरथ के शिष्य वसुवंधु, और उनका शिष्य दिङ्नाग था, जिसने कालिदास के काव्यों की कड़ी आलोचना की थी । संभवतः उसीका प्रतिकार * दिनागानां पथिपरिहरन् स्थूलहुस्तावलेपान्' से किया गया है। क्योंकि प्राचीन टीकाकार
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